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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ornaणसूत्रे यस्य स महाविटपः, स चासौ वृक्ष आश्रितानां परमोपकारकत्वसाधर्म्याद धर्मस्तस्य स्कन्धभूतं यत्तत्तथोक्तम्, अयं भावः यथा-स्कन्धोवृक्षशाखाऽऽधारभूतस्तथैवब्रह्मच धर्मशाखाssधारभूतम् । तथा महानगरपागारकवाडफलिहभूयं ' महानगरप्राकारकपाटपरिघभूतम्-प्रदानगरभित्र महानगरं विविधसुखहेतु साधर्म्याद धर्मः, तस्य रक्षकत्वात् प्राकाररूपं, कपाटरूपं परिघभूतम् = अर्गलारूपम्, यत्तत्तथोक्तम् तथा - ' रज्जुपिणोव्त्र इंदकेऊ ' रज्जुपिनद्धइव इन्द्रकेतु: - यथा - रज्जुबद्धहन्द्रध्वजो महोत्सवे सर्वोपरि वर्तमानः परमशोभां जनयति तथैवेदं सर्वव्रतश्रेष्ठं ब्रह्मचर्यम् । तथा-' त्रिसुद्धणेगगुणसंपिणद्धं = विशुद्धानेकगुणसंपनद्धं विशुद्धा as कगुणास्तैः संपिनद्धं संग्रथितमिदं ब्रह्मचर्यमस्ति ।। सू० १ ॥ , का परम उपकारी होने से धर्म का यह स्कंध जैसा है । अर्थात् जिस प्रकार स्कंध वृक्ष की शाखाओं का आधारभूत होता है उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्य भी धर्म की शाखाओं का आधारभूत है। तथा ( महानगर पागारकवाड फलिहभूयं ) महानगर के समान विविध सुखों का हेतुभूत होने के कारण धर्मरूप नगर का यह रक्षक होने से प्राकार जैसा, कपाट जैसा और अर्गला जैसा है। तथा ( रज्जुपिणोव्यइंदकेऊ ) जिस प्रकार रज्जु बद्ध इन्द्रध्वज महोत्सव में सर्वोपरि वर्तमान होता हुआ परम शोभा को विस्तारता है उसी तरह यह ब्रह्मर्यव्रत भी सर्वव्रतों में श्रेष्ठ है और परम शोभा का जनक होता है । तथा (विशुद्धगगुणसंपिण) विशुद्ध अनेक गुणों से यह ब्रह्मचर्य अच्छी रीति से ( संपिषद्धं ) ग्रथित-युक्त है । 66 તે ધર્મના સ્કધ જેવુ' છે. એટલે કે જેમ થડ વૃક્ષની શાખાઓને માટે આધાર રૂપ હોય છે એ જ પ્રકારે બ્રહ્મચર્ય પણ ધર્મની શાખાઓના આધાર ३५ छे. तथा महानगर पागार कवाड फलिहभूय " महानगरना समान विविध સુખાનું હતુભૂત હોવાને કારણે ધર્મનગરનું તે રક્ષક હોવાના પ્રાકાર જેવું, जाट मेवु भने भसा नेवु छे तथा “रज्जुपिणोव्वईदकेऊ” प्रेम २००० ( દોરડુ') અખ્ત ઇંદ્રિધ્વજ મહાત્સવમાં સર્વોપરિ દેખાતા પરમ શેશભાને વિસ્તાર છે તે જ પ્રમાણે આ બ્રહ્મચર્ય વ્રત પણ સવવ્રતામાં શ્રેષ્ઠ છે અને પરમ शोलानु भन होय छे तथा " विसुद्धणेगुगुणसंपिणद्ध " विशुद्ध मने शुशोथी या ब्रह्मर्य सारी रीते “ संपिणद्धं " श्रथित-युक्त छे. For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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