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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३-४ प्रथम अधर्मद्वारनिरूपणम् 'अइभओ' अतिभयः-मरणान्तभयजनकत्वात् , 'बीहणओ' भवानकः भयोत्पादकत्वात् 'तासणओ' त्रासनकः अकस्मात्क्षोभजनकत्वात् , 'अणज्जओ' अन्या. य्यः-न्यायादनपेतः युक्तः न्याय्यः, न न्याय्यः-अन्याय्यः न्यायवर्जितत्वात् । 'उध्वेयणओ य' उद्वेजनकच-उद्वेगकरः-हृदयोद्वेगजनकत्वात् । चकारः समुच्चयार्थः। 'निरवयक्खो' निरपेक्षः-निर्गता अपेक्षा परहितविषया यस्य स तथा परमाणत्राणवाञ्छावर्जितत्वात् , 'णिद्धम्मो' निर्धर्मः-श्रुतचारित्रधर्मवर्जितत्वात् , 'णिप्पिवासो' निष्पिपासः-प्राणिस्नेहरहितत्वात् , 'णिक्कलुणो' निष्करुणःदयाभाववर्जितत्वात् , 'निरयवासनिधणगमणो' निरयवासनिधनगमनः, निर. यवासा-नरकावासः, तत्र गमनमेव निधनं-पर्यवसानं अन्तिमफलं यस्य स निरयवासनिधनगमनः नरकपापकत्वात् । भूत होने के कारण प्रतिभयरूप १०, (अइभओ) मरणान्तभयजनक होने से अतिभयरूप ११, (बीहणओ) भय के उत्पादक होने से भयकारकरूप १२, ( तासणओ ) अकस्मात् क्षोभ का कारण होने से त्रासनकरूप १३, (अणजओ) अवैध होने के कारण--अनीति रूप होने के कारण अन्यायरूप १४, ( उब्वेयणओ) हृदयमें उद्वेग का जनक होने से उद्वेगकर्तृरूप १५, (निरवयक्वो ) परप्राणी के प्राणों की रक्षा करने की वाञ्छा से रहित होने के कारण निरपेक्षरूप १६, (णिद्धम्मो:) श्रुतचारित्र रूप धर्म से वर्जित होने के कारण निर्धर्मरूप १७, (णिप्पिवासो) प्राणियों के प्राणों के प्रति ममताभाव से रहित होने के कारण निष्पिपासारूप १८, (णिकलुणो) दयाभाव से रहित होने के कारण निष्करुणारूप १९, (निरयवासनिधणगमणो) तथा नरकगमन ही जिसका अन्तिम फल है ऐसा होने के कारण निरयवास निधनगमनरूप २०, ( मोहमहन्भयपयट्टओ ) यह onनन नेमभ३५ पाथी मतिलय३५, (१२) " बीहणओ" अयन पन्न ४२ना२ हवाथी लया२४३५, (१3) " तासणओ" अयान सामना ४४२११३५ डापाथी बासन४३५, (१४) "अणजओ" अवैध हवाथी-मनीति३५ जापाने ४।२२ सन्याय३५, (१५) “उठवेयणओ" हयमा उद्वेग पहा ४२ना हवाथा उद्वेग४।२४, (१६) " निरवयक्खो" ५२ प्राणानां प्राणीनी २क्षा ४२वानी छाथी २हित पाने २२ निरपेक्ष३५, (१७) “णिद्धम्मो" श्रुत-यात्रि३५ धमथी २ति डावाने १२ निधभ३५, (१८) “णिधिवासो" प्राणीमानां प्राणे। त२५ ममता माथी २डित पाने ४२ निपास३५, (१८) “णिकलुणो" ध्यामाथी २हित पाथी नि८४२९३५, (२०) “निरयवासनिधणगमणो" तथा न२४ ગમનજ જેનું અંતિમ ફળ છે, એ હેવાને કારણે નિવાસ નિધનગમનરૂપ, For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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