SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 809
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६० प्रश्नव्याकरणसूत्रे मणव्रतनियमनम् अदत्तादानविरमणव्रतस्य यनियमनं-नियन्त्रणं तद् भवति । एवम् अनेन प्रकारेण ' साहारणपिंडवायलाभसमिइजोगेण ' साधारणपिण्डपातलाभसमितियोगेन-साधारणपिण्डपातलाभे या समितिः- सम्यक्प्रवृत्तिः तस्या योगेन-सम्बन्धेन भावितोऽन्तरात्मानित्यं सदा अधिकरणकरणकारणपापकर्मविरतः =अधिकरणस्य अननुज्ञातभक्तादिभोजनलक्षणसावद्यकर्मणोयत्करणं कारणमुपलक्ष. णत्वादनुमोदनं च तदेव यत्पापकर्म ततो विरतो-निवृत्तः, दत्तानुज्ञातावग्रहरुचि भवति । एतद् व्याख्या पूर्वअद्विज्ञेया । म ९ ॥ अदत्तादानविरमण व्रत पर नियंत्रण-अधिकार हो जाता हैं। (एवं) इस प्रकार से (साहारणपिंडवायलाभे) साधारणपिंडपातलाभ में (समिइजोगेण ) सम्यक् प्रवृत्ति के संबंध से (भाविओ अंतरप्पा) भावित अन्तरात्मा (निच्च ) नित्य-सदा (अहिकरण करणकारावणपावकम्मविरए) अननुज्ञात भक्तादि भोजनरूप सावद्यकर्मके करने, कराने और उसकी अनुमोदनारूप पापकर्मसे विरत हो जाता है । और (दत्तमगुण्णाय उग्गहरुई भवइ) दत्तानुज्ञात अवग्रह में रुचिशाही हो जाता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा अदत्तादानविरमण व्रत की चौथी भावना को कहते है। इस का नाम अनुज्ञातभक्तादि भोजन है। साधु के लिये दाता द्वारा कल्पनीय शिक्षा अथरा उपधि की प्राप्ति हो जाने पर उसे किस तरह से अपने उपयोग में लाना चाहिये इसका इसमें विचार किया गया है। आहार के विचार में साधु को दाल शाक की अधिकता के साथ में आहार करने का त्याग कहा गया य य . “ एवं24[ प्रारे " साहारण पिंडवायलाभे" साधा२६ मिक्षानी प्राप्ति थतi " समिइजोगेण" सभ्य प्रवृत्तिन। योगी, “ भाविओ अं. तरप्पा” मावित भतरात्म! " निच्चं" नित्य “ अहिकरणकरणकारावणपाव कम्मविरए " मननुज्ञात extiler ३५ सायम ४२१ाथी, ४२११पाथी, भने तेनी मनुमहिना ३५ ५।५४ थी भुत थ जय छे. माने "दत्तमणुण्णाय. सग्गहरुइ भवइ " त्तानुज्ञात अपयमा रुथिवानी 2014 छ. ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા અદત્તાદાન વિરમણ વ્રતની ચોથી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે. તે ભાવના અનુજ્ઞાત ભક્તાદિ ભેજન નામની છે. દાતા દ્વારા સાધુને કહેશે તેવી ભિક્ષા અથવા ઉપધિની પ્રાપ્તિ થઈ જાય ત્યારે તેને કેવી રીતે તે પિતાના ઉપયોગમાં લેવી જોઈએ તે બાબતને આ ભાવનામાં વિચાર કરવામાં આવ્યું છે. વધારે દાળ શાક સાથે આહાર લેવાને સાધુએ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy