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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५२ प्रश्नव्य करणसूत्रे अथ तृतीयां भावनामाह-' तइयं ' इत्यादि मूलम्-तइयं पीढफलगसेज्जासंथारगट्याए रुक्खा न छिदियन्वा, न य छेयण भेयणेण य सेजा कारियठवा, जस्सेव उवस्सए वसेज्जा, सेज तत्थेव गवेसेज्जा, न य विसमं समं करेज्जा, न य निवायपवायउस्सुगत्तं, न डंसमसगेसु खुभियव्वं, अग्गीधूमो य न कायव्वो। एवं संजमबहुले संवरबहुले संबुडबहुले समाहिबहुले धीरे काएण फासयंते सययं अज्झागजुत्ते समिए एगे चरेज्ज धम्मं, एवं समिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा निच्चं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुन्नाय उग्गहरूई ॥ सू० ८॥ ___टीका-'तइयं तृतीयां शय्यापरिकर्मवर्जनरूपां भावनामाह-तत्र-पीढफलगसेज्जासंथारगट्टयाए' पीठफलकशय्यासंस्तारकार्यतायै-तत्र-पीठंबाजोट' को प्राप्त करने के लिये उनके स्वामीयों की आज्ञा प्राप्तकर उन २ वस्तुओं को लेता है वह इस द्वितीय भावना का पालक होता है। इस तरह के विचार से जो साधु अपनी प्रवृत्ति करता है वह अधिकरण करण कारण पापकर्म से निवृत्त बनकर इस व्रत को इस भावना द्वारा स्थिर करने वाला हो जाता है ।। सू०७॥ ___ अथ सूत्रकार इस व्रत की तृतीय भावना को कहते हैं-'तइयं पीढफलग.' इत्यादि। टीकार्थ-( तइयं) इस व्रत की तीसरी भावना शय्यापरिकर्मवर्जनरूप है। वह इस प्रकार से है-(पीढफलगसेज्जा संथारगट्टयाए) આજ્ઞા લઈને તે વસ્તુઓ ગ્રહણ કરે છે તેઓ આ બીજી ભાવનાના પાલક હોય છે. આ પ્રકારના વિચારથી જે સાધુ પિતાની પ્રવૃત્તિ કરે છે તે અધિકરણ કરણુકારણ પાપકર્મથી નિવૃત્ત થઈને આ વ્રતને આ ભાવના દ્વારા સ્થિર કરનાર બની જાય છે. આ સૂટ ૭ છે. हवे सूत्रा२ २॥ प्रतनी ची भावना मताव छ-"तइय पीढफलग" त्यादि टी--" तइय" म! प्रतनी श्री मान " शय्यापरिभवन" नामनी छ त २ा प्रमाणे छ-" पीढफलगसेज्जासंथारगट्टयाए " पी3-माले, For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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