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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ.१ सू.३-४ प्रथम अधर्म-द्वारनिरूपणम् पापा:-पापकर्मशीलाः 'पाणवह' प्राणवधं-प्राणाः सन्ति येषामिति ते प्राणाःप्राणिनः ‘अर्श आदित्वाद च्, तेषां वधो-हिंसा प्राणवधस्तं जीवघातं ' करेंति' कुर्वन्ति 'त' तत्-पथमानवद्वारं वक्ष्यमाणं 'निसामेह' निशामयत-शृणुत । हे जम्बूः ! मम कथयतः श्रृणु इत्यर्थः, अत्रापत्वाद् बहुवचनम् ।।०३।। सम्प्रति 'जारिसओ' यादृशः, इति द्वारं वितृण्वन् प्राणवधस्वरूपमाह'पाणवहो ' इत्यादि। मूलम्-पाणवहो नाम एसो जिणेहिं भणिओ-पावो१, चंडोर, रुदो३, खुदो४, साहसिओ५, अणारिओद, णिग्घिणो, णिस्संसोट, महन्भओ९, पइभओ१० अइभओ११, बीहणओ १२. तासणओ१३, अणजओ१४, उव्वेयणओ य, जिरवयवो १६, णिद्धमो१७, णिप्पिवासो१८, णिकलणो१९, निरयवास निधणगमणो२०, मोहमहब्भयपयट्टओ२१, मरणवेमणस्सो२२, पढम अहम्मं अव्वयस्स ॥ सू०४॥ नरकादिरूप फल देता है, तथा (जे वि य पाणवहं करेंति ) जो पापी इस प्राणवध को करते हैं यह सब विषय इस प्रथम आस्रवद्वार में कहा जावेगा। सो (तं निसामेह ) हे जंबू ! तुम उसको सुनो। ____ भावर्थ-सुधर्मा स्वामी इस गाथा द्वारा यह समझा रहे हैं कि हे जंबू ! अब इस हिंसारूप प्रथम आस्रवद्वार का स्वरूप, नाम और फल इन तीन द्वारांसे इस हिसारूप प्रथम आस्रवद्वारका निरूपण किया जायगा । तथा साथ २ में यह भी स्पष्ट कहा जायगा कि इस प्राणिवध को कौन जीव करते हैं। इस गाथा में “पाणवह" इस पद से प्राण जिनके होते हैं ऐसे प्राणी एकेन्द्रियादिक गृहीत हुए हैं। उनका जो वध है वह प्राणवध है। सू. ३ ॥ "जे विय पावा पाणवह करेंति" रे पापी मा प्रावध ४२ छ, त समस्त विषय 20 पडसा मानपामा वामां आशे. तो “सो तं निसामेह "ई भू! तु त सान. ભાવાર્થ—-સુધર્માસ્વામી આ ગાથા દ્વારા એ સમજાવે છે કે હે જંબ! આ હિંસારૂપ પ્રથમ આસ્રવદ્વારનું સ્વરૂપ, નામ અને ફળ એ ત્રણેનું દ્વારે. વડે નિરૂપણ કરવામાં આવશે. તથા તેની સાથે એ પણ સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે है प्रावध श्य। (पी) ०१ ४२ छ. 241 थामा “पाणवह" से पहथीने પ્રાણ હોય છે તેવાં એકેન્દ્રિયાદિક પ્રાણી ગ્રહણ કરાયેલ છે. તેમને જે વધ છે तेने प्रावध ४ छे. ॥ सू. 3 ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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