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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ. ३ सू०६ 'विविक्तवसति' नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ७४५ 'लिंपणं' लेपनम् मृत्तिकामिश्रितगोमयादिना रन्ध्रादिपूरणेन सकरलेपनम् , 'अणुलिंपणं' अनुलेपनम्-शोभार्थ पुनः पुनर्लेपनम् , ज्वलनं शोतापनोदनाय वह्नः प्रज्वलीकरणम् , भाण्डचालनम् गृहस्थितभाण्डानामपरत्र स्थापनम् , उपलक्षणमेतदन्यवस्तूनामपि, एतेषां समाहारद्वन्द्वः, एतद्रूपः-' असंजमो' असंजमः जीव. विराधनारूपः साधुनिमित्तं 'बट्टइ' वर्तते ' से तारिसे ' स तादृशः 'सुत्तपरिकुटे' सूत्रपरिक्रुष्टः-आगमनिषिद्धः, 'हु' निश्चयेन ' उवस्सए' उपाश्रयः ' संजयाण संयतानाम् ' अहा' अर्थाय — वज्जेययो' वर्जितव्यः। संयमिभिरेतादृशे जीवविराधनायुक्ते उपाश्रये न कदापि बस्तव्यमिति भावः । प्रथमभाचनामुपसंहरन्नाह-एवं' एवम्-उक्तरूपेण 'विवित्तवासबसहिसमिइजोगेणं' विविक्तवासबसतिसमितियोगेन-विवक्ता-स्त्रीपशुपण्डकरहिता जनरहिता वा या जिसकी भीते पोतकर उज्ज्वल कर दी गई हों, जिसमें छेद वगैरह गोबरमिश्रित मिट्टी से पूर दिये गये हों, तथा जो यार २ सुन्दर दिखाने के निमित्त गोमयादि मिश्रित मृत्तिका से लीपा गया हो, जहां शीत को दूर करने के लिये अग्नि जल रही हो और जहां से रक्खे हुए गृहस्थजनों के वर्तन उठा २ कर दूसरी जगह रखे जा रहे हों इस प्रकार का (असंजमो वट्टइ) जीवविराधना रूप असंयम जहां साधु के निमित्त हो रहा हो ( से तारिसे ) इस प्रकार का जो (सुत्तपरिकुटे ) आगम से निषिद्ध है ( उचस्सए) वह उपाश्रय (संजयाणं अट्ठा) साधुओं के लिये ( वज्जेयव्यो) वर्जनीय है, अर्थात् इस प्रकार के उपाश्रय में साधु को नहीं वसना चाहिये। अब सूत्रकार प्रथम भावना का उपसंहार करते हुए कहते हैं--(एवं ) उक्तरूप से इस ( विवित्तवासवसहिसमिइजोगेण) विविक्तवासवसतिसमिति के योग से - स्त्री पशु पंडक से ઉજવળ બનાવવામાં આવી હોય, જેમાંનાં છિદ્રો આદિ છાણમિશ્રિત માટીથી પૂરી દીધાં હોય, તથા જે સુંદર દેખાય તે માટે વારંવાર છાણ આદિ મિશ્રિત માટીથી લીંપવામાં આવેલ હોય, જ્યાં શીત દૂર કરવાને માટે અગ્નિ બળ હાય, અને જ્યાંથી ગૃહસ્થોનાં વાસણ ઉપાડી ઉપાડીને બીજી જગ્યાએ મૂકવામાં आवत हाय, 1 रन" असंजमोवइ " ०१ विराधना३५ असयम ल्या साधुने निभित्ते य रह्यो हाय, " से तारिसे " 20 प्रा२र्नु रे “ सुत्त. परिकुटे" भागमद्वारा निषिद्ध छ, " उवस्सए" ते उपाश्रय " संजयाणं अदा" साधुआन माटे "वज्जेयव्वो” पनिीय छ भेटले ते ना पाश्रयमा સાધુએ રહેવું જોઈએ નહીં. હવે સૂત્રકાર પહેલી ભાવનાને ઉપસંહાર કરતા ४९ छे-" एवं" ५२ ह्या प्रमाणे । “ विवित्तवानवसहिसमिइजोगेण " For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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