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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुर्दाशनीटीका अ० ३ सू० ४ कोमुनिरदत्तादानाविव्रतमाराधयति ! ७३७ वैयावृत्यादिकार्य, ‘ण होइ' न भवति ' पच्छानादिए ' पश्चात्तापिका श्चात्तापकारी । तथा- संविभागसीले ' संविभागशील:-लब्धभक्तादेः संविभागकारी ' संगहोवग्गहकुसले ' संग्रहोपग्रहकुशलः, तत्र-संग्रहः-शिष्यादिपरिवर्द्धनम् , उपग्रहः तेषामेव भक्तश्रुतादिदानपूर्वकमुपष्टम्भनम् , तत्र कुशलो दक्षो भवति, ' से तारिसे ' स तादृशः साधुः । इण' इदम् = अदत्तादानविरमणरूपं 'वयं' व्रतम् ' आरा हेइ ' आराधयति, नान्यः ॥ सू०४॥ विए होइ) देववस्तु को देकर एवं वैयावृत्य आदि कार्य को करके जो पश्चात्ताप नहीं करता है, ( संविभागसीले) लब्ध भक्तादिक का जो संविभागकारी होता है, और (संगहोवरगहकुसले ) शिष्यादि के परिधर्द्धन में और उनके भक्त श्रुत आदि दानपूर्वक उपष्टंभन में दक्ष होता है, ( से तारिसे ) ऐसा वह साधु ( इणं वयं आराहेइ) इस अदत्तादानविरमणरूप व्रत को आराधित करता है, दूसग नहीं । ___ भावार्थ- सूत्रकार ने इस सत्र द्वारा यह समझाया है कि किस प्रकार का कार्य करने वाला साधु इस महाव्रत का आराधक होता है। उनका कहना है कि जो साधु पीछे के दूसरे सूत्र में कही गई बातों के अनुसार आचरण करता है वही साधु इस महानत का आराधक बनता है, वे बाते इस प्रकार से हैं जो साधु उपधि और भक्तपान के संग्रहण एवं दान करने में दक्ष होता है, अत्यंत बाल, दुर्वल, ग्लान, वृद्ध, क्षपक, प्रवर्तक, आचार्य, उपाध्याय आदि का वैयावृत्य करता है। वैयावृत्य माय ४रीने से पश्चात्ता५ ४२ता नथी, “संविभागसीले " प्रास माहिना र सविनागरी हाय छ, भने “संगहोवग्गहकुसले" शिष्याहिना પરિવર્ધનમાં અને તેમના ભક્ત થત આદિ દાન પૂર્વક ઉપષ્ટભનમાં દક્ષ डायले “से तारिसे " मेयो ते साधु “ इणं वयं आराहेइ ' 20 महत्ताहान વિરમણરૂપ વ્રતનું આરાધન કરી શકે છે, બીજાં કરી શકતાં નથી, ભાવાર્થ –સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા સમજાવ્યું છે કે કેવું કાર્ય કરનાર સાધુ આ મહાવ્રતને આરાધક થાય છે. તેમનું એવું કથન છે કે જે સાધુ આગળ બીજા સૂત્રમાં બતાવેલ વાત અનુસાર આચરણ કરે છે તે જ સાધુ આ મહાવતને આરાધક બને છે તે વાતે આ પ્રમાણે છે--જે સાધુ ઉપધિ અને ભક્તપાન (આહારપાણી) ને સંગ્રહ અને દાન કરવામાં દક્ષ હોય છે, અત્યંત બાળ, દુર્મલ, ગ્લાન, વૃદ્ધ ક્ષેપક, પ્રવર્તક, આચાર્ય ઉપાધ્યાય આદિની વૈયાવંશ-વૈયાવૃત્ય કરે છે અપ્રીતિક જનને ત્યાંગેચરને માટે જતા નથી, તેના દ્વારા प्र ९३ . For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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