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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२२ प्रश्नध्याकरणसूत्रे कीदृशो मुनिरिदं व्रतं नाराधयती ? त्याह-'जे वि य' इत्यादि मूलम्--जे वि य पीढफलगसज्जासंथारगवत्थपायकंबल. दंडगरयहरणनिसेज्ज चोलपदगमुहपोन्तियपाय पुंछणाइ भायण भंडोवहिउवगरणं असंविभागी असंगहरुई, तबतेणे य वइतेणे य रूवतेणे य आयारतेणे य भावतेणे य सहकरे झंझकरे कलहकरे वेरकरे विकहकरे असम्ाहिकरे सया अप्पमाणभोई सययं अणुबद्धवेरे य निच्चरोसी से तारिसए नाराहए वयमिणं ॥ सू०३॥ टीका-'जे विय' योऽपि च मुनिः 'पीढफलमसेज्जासंथारंगवत्थपायकंबलचोलपट्टगस्यहरणमुहपोत्तियपायधूछणाइभायण भंडोबहिउवगरणं । पीठफलकशय्यासंस्तारकवस्त्रपात्रकम्बलचोलपट्टकरजोहरणमुख वत्रिकापादपोन्छनादि - भाजनभाण्डोपध्युपकरणम् एषणागुणावेशुद्धिलब्धं पोठकलकादिकं लब्ध्वेति गम्यते, तस्य असंविभागी-अविभागकारो-आचार्यग्लानादिभ्यः पीठफलकादीन् अविभज्यैव स्वार्थबुद्धया स्वयमुपभोक्ता भवति स इदं व्रतं नाराधयतीत्यग्रेण किसीकी चुगली नहीं करना चाहिये। तथा (मच्छरियं) साधु को इर्ष्याभाव का भी परित्याग कर देना चाहिये ॥५-२॥ किस प्रकार का मुनि इस व्रत की आराधना नहीं कर सकता है इस यात को कहते हैं-'जे वि य' इत्यादि। टीकार्थ-(जे वि य) जो मुनि एषगागुण की विशुद्धि से प्राप्त पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कंचल, दंड, रजोहरण, निषद्या, चोलपट्टक, सदोरकमुखवत्रिका, पादप्रोग्छन आदि, तथा भाजन, भांड, उपधि, इन सब उपकरणों को प्राप्त करके उनका विभाग ण्णं " साधु नी याडी ४२वी न नाडी तथा “मच्छरियं " साधुसे ध्यासापनी ५४ परित्या ४२२! न मे ॥ -२ ॥ કેવા મુનિ આ વ્રતની આરાધના કરી શકતા નથી તે વાત હવે સૂત્ર१२ ४ छ-"जे वि य” त्यात टी-"जे वि य" २ भुनि अषण! शुनी विशुद्धिथी प्रास थयेट पी3 ३४४, शय्या सत्ता२४, १२, पात्र, ४८, ४ २०२५, निपया, यासप, होश સહિતની મુહપત્તિ, પાદપ્રેછન આદિ તથા ભજન, ભાંડ, ઉપાધિ એ બધાં For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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