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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे लोलोऽलीकं भणेत् ॥७॥ 'कंबलस्स' कम्बलस्य 'पायपुंछ गस्स' पादपोन्छनस्य वा कृते लुब्धो लोलोऽलीकं भणेत् ॥८॥ तथा 'सीसस्स' शिष्यस्य 'सीसणोए' शिष्याया वा कृते लुब्धो लोलोऽलीकं भणेत् ॥९॥ ‘अन्नेसु' अन्येसु 'एबमाइएमु' एवमादिकेषु एवं प्रकारेषु बहुषु कारणशतेषु प्राप्तेषु लुब्धो लोलोऽलोक भणेत ॥ १० ॥' तम्हा' तस्मात् कारणात् लोभो न सेवितव्यः । एवम्-अमुना प्रकारेण 'मुत्तीए' मुक्या-निर्लोभतारूपया भावितः 'अंतरप्पा' अन्तरात्मा जीवः संयतकरचरणनयनवदनः शूरः सत्यार्जवसंपन्नो भवति ॥ सू०६ ॥ ॥ इति तृतीया भावना ॥ लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज ) इसी तरह वस्त्र अथवा पात्र के लिये चंचल चित्त बना हुआ वह लोभी झूठ वचन बोल सकता है (कंबलस्स पायपुंछणस्स वा कएण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज ) कम्बल अथवा पादपोंछन के निमित्त को लेकर वह चंचल चित्त बना हुआ लोभी मृषावादि कह सकता है (सीसस सीसणीए वा कएण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज) शिष्य अथवा शिष्या के निमित्त लुब्ध वह चंचलचित्त होकर मृषाभाषण करता है ( अन्नेसु एवमाइएसु बहुसु कोरणसएसु लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज ) इसी तरह और भी इनसे सैकड़ों कारणों को निमित्त करके वह लोभी चंचल चित्त होकर झूठ बोल सकता है (तम्हा लोहो न सेवियन्यो ) इसलिये लोभ सेवन करने योग्य नहीं है। ( एवं मुत्तीए भाविओ अंतरप्पा) इस प्रकार निर्लोभतारूप तृतीय भावना से बासित हुआ अंतरात्मा-जीव (संजयकरचरणनयनवयणो) अपने कर, चरण, नयन और मुखकी प्रवृत्ति को यत्नावार से संयमित पत्तस्स वा कएण लुद्धो लोलो अलिथं भणेज " से प्रभारी पर पात्रने भोट यस वित्त थयेस तसाली मसत्य वचन मालीश छ. "कंबलस्स पायपंछणस्न बा कएण लुद्धो लोलो अलियं भणेज्ज" स पाया भाट त यस वित्त पनेस सोनी भूषापा ४ीश छे “सीसम्स सीसणीए वा कएण लुद्धो लोलो अलिचं भणेज्ज" शिष्य अथवा शिष्याने निमित सुध यस यित्त भृपा॥५९, ४२श त. “ अन्नेसु एवमाइएसु बहुसु कारण मएस लडो लोलो अलिय भणेज्ज" २ रीते 21 सिवायन से होने नमित्त तेली यायित्त ने सत्य मानी श छे. " तम्हा लोहो न सेवियवो "तथी सोन सेवन. ४२वायोग्य नथी. “ एवं मुत्तीए भाविओ अंतरप्पा” मा शत निमिता३५ त्री भावनाथी भावित बनेर मतरात्मा-८०१ "संजयकरचरणनयणवयणो" पोताना डाथ, ५, नयन अने भुभनी प्रवृत्तिने यतनाव संयमित ४३ से छ. मने "सूरो" पाताना सत्यव्रतना पासनमा For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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