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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्रव्याक ६७४ प्रश्नव्याकरणसूत्रे सर्वकालं सर्वदा 'वजणिज्ज'' वर्जनीय त्याज्यं लोके 'होइ' भवति, एवं विहं ' एवंविधं ‘दुहओ' उभयतः लोकतः शास्त्रतश्च, 'उवयारमइकंत' उपचार मतिक्रान्त व्यवहारविरुद्धं 'सच्चंपि' सत्यमणि ' न वत्तव्यं ' न वक्तव्यम् । ___ 'अह' अथ 'केरिसयं' कीदृशं तु 'पुणाई' पुनः 'सच्चं भासियव्यं' सत्यं भापितव्यम् ? आह-जं तं' यत्तत् 'दब्वेहि ' द्रव्यैः त्रिकालवर्तिभिः पुद्गलादिभिः ‘पज्जवेहिं , पर्यथैः नवपुराणादिभिः क्रमवर्तिभिर्धमः, च-पुनः 'गुणेहिं ' गुणैः सहभूतैर्गादिभिः, 'कम्मेहिं' कर्मभिः कृष्यादि व्यापारैः, सब कारणों को लेकर भी कभी ऐसे बचा नहीं कहना चाहिये कि तुम्हारा मातृवंश अच्छा नहीं है, पितृवंश तुम्हारा शुद्ध नहीं है, तुममे सौंदर्य नहीं है, तुम व्याधि संपन्न हो- कुष्ठी आदि हो । तात्पर्य-इसका यही हैं कि मातृवंशादि से विहीन तथा कुष्टादि संपन्न व्यक्तियों से ऐसे धचन नहीं कहना चाहिये । क्यों कि इस प्रकार के वचनों से उन्हें दुःख होता है। (दुहओ उवयारमइकतं) इसी तरह जो वचन लोक तथा आगम, ऐसे दोनों की अपेक्षा व्यवहार विरुद्ध हों (एवंविहं सच्चं पिन वत्तव्यं ) ऐसे वचन सत्य होने पर भी नहीं बोलना चाहिये । (अहकेरिसयं पुणाई लच्चं तु भासियव्वं ) अब सूत्रकार यह कहते है कि साधुजनों को-महावताराधक संयमी जनों को-किस प्रकार के सत्यवचन घोलना चाहिये-(जं तं ) जो वचन ( दबेहिं ) त्रिकालवी पुदलादि द्रव्यों से (पज्जवेहिं) नवीन पुरानी आदि क्रमवर्ती पर्यायों से (गुणेहिं) द्रव्य के साथ अविना भाव रूप संबंध रखने वाले वर्णादि गुणों વચન ન કહેવાં જોઈએ કે “તમારે માતૃવંશ સાર નથી, તમારા પિતૃવંશ શદ્ધ નથી, તમારામાં સૌંદર્ય નથી, તમે વ્યાધિયુકત કોઢ વગેરે રોગયુક્ત-- છે ” તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જેને માતૃવંશ આદિ હીન હોય, કોઢ આદિ ગોથી જે યુક્ત હોય તેને તેવાં વચને કહેવાં જોઈએ નહીં, કારણ કે તેવાં क्यनाथी तेने म थाय छ-" दुहओ अवयारमइक्कंत" मे ४ प्रभार पयन सो तथा भाभ, मानेनी अपेक्षा व्यवहार वि३४ हाय "एवं विह सच्चंपि न वत्तव्वं" मे क्यन सत्य डाय तो ५ मांस नही “ अहकेरिसय पुणाइ सच्चंतु भासियव्वं ” वे सूत्र.२ मे पतावे छ । સાધુજને એ-મહાવ્રતારાધક સંયમીજને કેવા પ્રકારનાં સત્યવચન બોલવા नमे. “जं तं" ने क्यन “दव्वेहिं" ति पुरादि द्रव्योथी “पज्जवेहिं" नवी जुनी मादि भक्तो पर्यायाथी “ गुणेहिं " द्रव्यनी साथै मदिनाला१३५-५.५ रामना२ दि गुपथी "कम्मे हि " प्यादि व्यापार ३५ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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