SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे वक्ष्यामि त्वां प्रति प्ररूपयिष्यामि। तत् कीदृशमित्याह-'अण्हये 'त्यादि'अण्हयसंवरविणिच्छियं' आस्र पसंवरविनिश्चितं, आस्रवन्ति-आगच्छन्ति कर्मजलानि आत्मसरसि यैस्ते आस्रवाः कर्मवन्धहेतुभूताः प्राणातिपातादयः, यद्वा-आस्रवणम्-आस्रवः-आगमनम् । स द्विविधः-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो यज्जलान्तर्गतनावादौ छिट्टैर्जलागमनम् । भावतस्तु-प्राणातिपातादिभिरात्मनि कर्मागमनम् । संसारसागरान्तर्गतात्मनौकायां प्राणातिगतादिछिद्रः कर्मजलाग मनमिति भावः। स प्राणातिपातादिरूपः पञ्चविधः। संब्रियन्ते प्रतिरुद्ध्यन्ते से ऐसा कहा-'जंबू इणमो०' इत्यादि। टीकार्थ-इस सूत्र में "जंबू" यह पद संबोधोन अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। इससे यह लक्षित होता है कि सुधर्मास्वामी जंबू स्वामी से कहते हैं कि (जंबू इणमो) हे जंबू ! मैं अनुपद वक्ष्यमाण प्रश्न व्याकरणरूप शास्त्र (वोच्छामि) तुमको कहूँगा। (अण्यसंवरविगिच्छियं) इस शास्त्र में आस्रव एवं संवर का निर्णय उनके लक्षणो एवं भेदादिकों के कथनःपूर्वक किया गया है। "विणिच्छियं" पद का अर्थ है विशेषरूप से निर्धारित करना। तथा आस्रवका अर्थ है कर्मबंधके हेतुभूत प्राणातिपातादिक । इनके द्वारा ही आत्मरूपी तालावमें जलतुल्य कर्मों का आगमन होता रहताहै। जिस प्रकार तडाग में जल के आने के लिये नाले हुआ करते हैं उसी प्रकार आत्मा में भी प्राणातिपात आदि रूप नाला द्वारा ज्ञानावरणीय आदि कर्मरूप जल का आना होता रहता है। अथवा-आना यह-आस्रव है यह आस्रव द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। 43 पूछातi स्थवि२ मा सुधा ते मारने धु-"जंयू इणमो” त्यादि. टी -२मा सूत्रमा “ जंबू ” ५४ समाधन मम परायु छ. तेथी એ લક્ષિત થાય છે કે સુધર્માસ્વામી જંબુસ્વામીને કહે છે કે “ इणमो” ! हु मा नीय प्रभानु प्रश्नव्या ४२१७५३५ शाख "वोच्छामि" तभने ४ी. "अण्हयस्वरविणिच्छिय" मा शाखमा मानव અને સંવરદ્વારને નિર્ણય તેમનાં લક્ષણો અને ભેદાદિના કથનપૂર્વક કરવામાં साव्य। छ. “ विणिच्छियं” ५४ने। म विशेष३ मा त ४२२; तथा मास વને અર્થ કર્મબંધના કારણરૂપ પ્રાણાતિપાતાદિક થાય છે. તેમના દ્વારા જ આત્મારૂપી તળાવમાં જળ સમાન કર્મોનું આગમન થયા કરે છે. જેમ તળાવમાં પાછું આવવા માટે નાળાં હોય છે, તે જ પ્રમાણે આત્મામાં પણ પ્રાણાતિપાત આદિપ નાળા દ્વારા જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મરૂપ જળનું આગમન થતું રહે છે. અથવા આવવું તે આસ્રવ છે. તે આસવ દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકારને For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy