SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 701
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे प्रमोदजकत्वात् , तथा ' मुकहिय' सुकथितम्-वोतरागप्रतिपादितत्वात् , 'सुव्वयं' सुव्रतं-सर्वत्रतप्रधानत्वातू , तथा-'सुदिटुं सुदृष्टम्-अतीन्द्रियार्थदर्शिभिरपवर्गादिहेतुतया दृष्टत्वात् , ' सुपइद्वियं ' मुमतिष्ठितम्-समस्तप्रमाणैरुपपादितत्वात् , 'मुपइट्ठियजसं' मुमतिष्ठितयशः-सुप्रतिष्ठितं यशो यस्य तत्, लोकत्रयप्रसिद्धत्वात् , तथा- 'मुसंजमियवयणवुइयं ' मुसंयमितवचनोदितं-मुसंयमित-सम्यगूनियन्त्रितं यद्वचनं तेनोदितं कथितम् , निर्दोषवचनैः कथितमित्यर्थः, तथा ' मुरवर नरवसभपवरबलवगसुविहिय जणबहुमयं ' ' सुरवरनरकृषभप्रवरवलवत्सुविहितजनबहुमतम् -- मुरवराणाम् -- इन्द्रादीनां, नरषभाणां = चक्रवा . अतः शुभ विवक्षा से समुत्पन्न होने के कारण यह मुजात है। (सुभा. सियं) यह प्रमोद का जनक होता है इसलिये यह सुभाषित हैं (मुफहियं) इसका प्रतिपादन वीतराग आत्माओं ने किया है इसलिये यह सुकथित है (सुव्वयं) सर्वव्रतों में इसकी प्रधानता मानी गई है इसलिये यह सुव्रतरूप है। (सुदिढे ) अतीन्द्रिय अर्थों को जानने वाले सर्वज्ञ प्रभुओं ने इसे अपवर्ग (मोक्ष) आदि के हेतु रूप से देखा है इसलिये यह सुदृष्ट है। (सुपइडिय) समस्त प्रमाणो द्वारा उपपादित होने से यह सुप्रतिष्टित हैं। (सुपइट्ठियजस ) तीनों लोकों में इस वचन का यश सुप्रसिद्ध है इसलिये यह सुप्रतिष्ठिन यशवाला है । (सुसंजमियवयणघुइयं ) इसे सत्यवचन को वे ही मनुष्य बोल सकते हैं कि जिनका वचन सुसंयमित होता है अच्छी तरह से नियंत्रित होता है। (सुरवरनरवसभपवरबलवगसुविहियजणबहुमयं) यह वचन इन्द्रादिक उत्तम देवों को, " सुभासिय" ते अभी उत्पन्न ४२नाई पाथी सुभाषित छ. “ सुकहिय" વીતરાગ આત્માઓએ તેનું પ્રતિપાદન કર્યું છે, તેથી તે સુકથિત છે. "सुव्यय" स तोम ते भुथ्य मनायुं छे तेथी ते सुबत छे. " सुदिट्ठ" અતીન્દ્રિય અર્થોને જાણનાર સર્વજ્ઞ પ્રભુએ તે અપવર્ગ આદિના હેતુરૂપથી मयुं छे, तेथी ते सुदृष्ट छे. “सुपइटिय" समस्त प्रभा द्वारा तेनुं प्रति. पाइन थये जापाथी ते प्रमाणभूत-सुप्रतिष्ठित छ. “सुपइद्वियजस” त्रो લોકમાં આ વચનને યશ સુપ્રસિદ્ધ છે તેથી તે સુપ્રતિષ્ઠિત યશવાળું છે. " सुसंजमियवयणबुइय" 24सत्य ययन से भासे मोदी श छ भनां चयन सुसयमित खाय छे-सारी ते नियत्रित डाय छे. “ सुरवर नरवसभपवरवलवगसुविहियजणबहुमयं " यनन्द्र माहि उत्तम देवाने For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy