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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org , सुदर्शिनी टीकाअ० १ सू० ५ अहिंसापालककर्त्तव्य निरूपणम् ६१३ अपरितंत } " ; 'भिक्षालाभो भविष्याति न वे ' त्यादि विषादरहितः, तथा जोगी' अपरितान्तयोगी = अलाभादिषु तन्तनादादि शब्दवर्जितः, तथा-' जयणघडण करणच रियरिणयगुणजोगसंपत्ते यतनघटन करणचरितविनयगुणयोग - संप्रयुक्तः, तत्र यतनं प्राप्तेषु संयमयोगेषु उद्यमः, घटनम् = अप्राप्तसंयमयोगमाप्तिचेष्टनम् एतद् द्वयं कुरुते यः स यतनघटनकरणः, तथा - 'चरितविनयः सेवितो येन स चरितविनयः, तथा-गुणयोगेन - समाधिगुणयोगेन संप्रयुक्तो यः स-गुणयोगसंप्रयुक्ताः एतेषां कर्मधारयः, एतादृशो ' भिक्खु ' भिक्षुः साधुः भिक्खेसणानिरए भिक्षैषणानिरतः = भिक्षागवेषणायां निरतो भवेदिति सम्बन्धः, एवम्भूतेन भिक्षुणा भैक्षं गवेषितव्यमिति भावः । अथोपसंहरन्नाह - ' इमं च ' इत्यादि - ' इमं च णं सव्वजगजीवरकखणदयट्टयाए पावयणं' इदं च खलु 'पावयणं प्रवचनं ' सव्वजगजीवरक्खणदयद्वयाए सर्वे ये जगज्जीवाः षड्जीवनिकायाः, तेषां रक्षणरूपा या दया-अनुकम्पा तदर्थ - सर्वजगज्जीवरक्षणदयार्थम् ' भगवया ' भगवता महावीरेण 'सुकहियं ' सुकथितं न्यायावाधितत्वात्, रहित होकर, अकरुण - अपने दुःख को किसी के पास किसी भी रूप में प्रकट नहीं करके, अविषादी - “भिक्षा का लाभ मुझे होगा या नहीं होगा " इस प्रकार के विषाद भाव को छोड़ करके अपरितंत जोगीभिक्षावृत्ति नहीं मिलने पर तनतनाने की वृत्ति का परित्याग करके, तथा - यतनघटनकरण प्राप्त संयम में उद्यमशील तथा अप्राप्त: संयम की प्राप्ति करने में निरन्तर चेष्टाशील, ऐसा साधु कि जो चरित विनय-विनय से युक्त वना हुआ है, तथा गुणयोगसंप्रयुक्त-समाधिगुण के योग से जो युक्त हो रहा है ऐसा होकर भिक्षु-मुनि भिक्षैषणा मेंभिक्षा की गपेषणा करने में निरत होवे । (इमं च णं पावयणं ) यह प्रवचन ( सवजगज्जीवरक्ख गदयहाए ) षडू निकायरूप जगत के जीवों की रक्षणरूप दया के निमित्त ( भगवया सुकहियं ) भगवान् 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 अविषादी - “ भने लिक्षानो साल भगशे में नहीं भजे " से प्रहारना विषाह लावने छोडीने, अपरितंतजोगी- लिक्षा नहीं भजता तनतनाव नी वृत्तिनो परि ત્યાગ કરીને, તથા यतनघटनकरण-आप्त संयममा उद्यमशीन तथा प्राप्त સયમની પ્રાપ્તિ કરવામાં નિરન્તર પ્રયત્નશીલ, એવા સાધુ કે જે ત્રિનય विनयधी युक्त थयेक्ष छे, तथा गुणयोगसंप्रयुक्त सभाधि गुगुना योगयी मे ચેગથી જે યુક્ત થયેલ છે, એવા થઈ ને ભિક્ષુ “મુનિ ભિક્ષાની ગવેષણા કરવાને પ્રયત્નશીલ थाय. " इमंच णं पावयणं " मा प्रवथन " सव्वजगज्जीव रक्खणदयढाए જગતના કાયના જીવોની રક્ષારૂપ યાને નિમિત્તે " भगवया सुकहिय' " For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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