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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकणसूत्र विश्रामस्थानम् । तथा- दुहहियाणं च ओसहिवलं' दुःखस्थितानां च ओषधिघलम्-रोगग्रस्तानां प्राणिनां कृते थथौषधम् तथैव कर्मरोगग्रस्तानां कृतेऽहिंसौषधम् , तथा- अडवीमज्झे च सत्यगमणं' अटवीमध्ये इव सार्थगमनम्-यथा-अटवीमध्ये सार्थेन सह गमनं सुखकरं भवति, तथैव मोक्षमार्गपस्थितानामहिंसा किम धिकम् ? 'एत्तो' इतः एभ्यः पूर्वक्तिभ्योऽपि अहिंसा — विसिट्टतरिया' विशिष्टतरिकाविशिष्टतरा । 'जा सा' या साहिंसा 'पुढवी-जल-अगणि-मारुय-वणस्सइबीय-हरिय-जलचर-थलचर-वहयर-तस-थावर-सव्यभूय-खेमकरी' पृथिवीजलाग्नि मारुत-वनस्पति-बोज-हरित-जलचर-स्थलवर-खेवर.त्रस-स्थायरसर्वभूतक्षेमकरी। पृथिव्यादिषट्कायजीवानां कल्याणकारी वरीवति दयाभगवती ॥मू-४।। अहिंसा ही एक परम औषधीरूप है । ( अडवोमज्झे वसत्थगमणं) जंगल के बीच में जिस प्रकार सार्थ-समुदाय के साथ चलना मुखपद होता है उसी प्रकार मोक्षमार्ग में प्रस्थित हुए मनुष्य को यह अहिंसा है अर्थात्-सार्थ का काम देती है । और अधिक क्या कहें- ( एत्तो) इस पूर्वोक्त उपमानों से भी (विसितरिया ) अहिंसा विशिष्टतर है। क्यों की (जा सा अहिंसा) यह जो अहिंसा है वह ( पुढधी जलअगणि-मारुय-वणस्सइ-बीय-हरिय-जलचर-थलचर खहयर तस-थावर सव्वभूयखेमकरी) पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, धीज, हरित, जलचर, थलचर, खेचर, बस और स्थावर इन सब भूतों की-पृथिव्यादि छह काय के जीवों की-कल्याणकरी-रक्षा करने वाली है। भावार्थ-इस अहिंसा भगवती के समक्ष संसार के सभी विशिष्ट जड़ पदार्थ तुच्छ है । क्यों कि उनसे जीवों की यथार्थरूप में रक्षा नहीं भाट महिंसा १ मे भारी गोष५३५ छ. “ अडवीमझे वसत्य गमण १२ જંગલની વચ્ચે સાર્થ-સમુદાયની સાથે જવાનું સુખકારી હોય છે તે જ પ્રમાણે મેક્ષ માર્ગે પ્રયાણ કરતા મનુષ્યોને માટે અહિંસા સાથેની ગરજ સારે છે, पधारे शु ! ' एत्तो” पूर्व प्रथित माने ४२i पण "विसिद्रतरिया" महिंसा मधित२ छ १२९१ "जा सा अहिंसा" २२ मडिसा छ ते " पुढवीजलअगणि-मारुय-वणस्सइ-बीय -हरिय-जलयर- खयर - तस - थावर सव्वभूय- खेमकरी' पृथिवी, रस, मसि. वायु. वनस्पति, मीन, हरित, જલચર, થલચર, ખચર, ત્રસ, અને સ્થાવર તે બધા ભૂતની પૃથિવ્યાદિ છે કાયનાં છાની કલ્યાણકારી-રક્ષા કરનારી છે. ભાવાર્થ-આ ભગવતી અહિંસાની આગળ સંસારના સઘળા વિશિષ્ટ જડ પદાર્થો તુચ્છ છે કારણ કે તેમનાથી યથાર્થ રીતે છાની રક્ષા થતી નથી જે For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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