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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टोका अ० ५ सू० ५ परिग्रहो यत्फलं ददाति तन्निरूपणम् ५१५ 'परिग्सहस्स ' परिग्रहस्य फलविवागो' फलविपाकः इहलोइओ' इहलौकिका, मनुष्यभवापेक्षया, 'परलोइओ' पारलौकिका, नरकतिर्यग्गत्याद्यपेक्षया 'अप्पसुहो' अल्पसुखः-अल्पंसुखं यस्मिन् स तथोक्तः, 'बहुदुक्खो' बहुदुःखः-बहूनि दुःखानि यस्मिन् स तथोक्तः, 'महब्भओ' महाभयः 'बहुरयप्पगाढो' बहुरजः प्रगाढा बहुरजः -प्रभूतकर्म प्रगाढं-दुर्भो यस्मिन् स तथोक्तः, दारुणो= रौद्रः, 'ककसो' कर्कशः कठिनः, 'अायो' अशातः-अशातवेदनीयरूपः अस्ति, एष परिग्रहः ‘वाससहस्सेहि' वर्षसहस्रः = अनेकपल्योपमसागरोपमकालैरुपभोगेन 'मुच्चइ ' मुच्यते । 'न अवेयइत्ता अत्थिहु मोक्योत्ति ' न अवे दयित्वा ऽस्ति खलु मोक्षः परिग्रहफलमनुपभुज्य नास्ति मोक्षः 'त्ति एवमासु' सागरोपम प्रमाणकालतक घूमना रहता है। ( एसो सो परिग्गहस्सफलविवागो) परिग्रह का यह फलविपाक ( इहलोइओ) मनुष्यभव की अपेक्षा तथा (परलोइओ) परलोक-नरक-तिर्यंच गति की अपेक्षा (अप्पसुहो) अल्पसुख वाला तथा (बहुदःखो) बहु दुःखवाला है। ( महमओ) महाभयंकर है । (बहुरयप्पगाढो) इसमें जो प्रभूत कर्मरूप रज का बंध होता है वह प्रगाढ-बड़ी मुश्किल से दूर किया जाय, ऐसे होता है। तथा ( दारूणो ) यह फलरूप विपाक दारूण-भयानक (ककसो) कर्कश-कटिन एवं(असाओ अशात अशात वेदनीयरूप होता है। (वासस. हस्सेहिं)इसी परिग्रह रूप पाप का फल अनेक पल्योपम एवं मागरोपम प्रमाण कालतक भोगने से (मुच्चइ) छूटता है। (अवेइत्ता) विना इसका फल भोगे उन जीवों को (न अस्थि मोक्खो ) मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती मन्या ४२ छ. “ एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो” ! ! ५सवि. पा४ " इहलोइओ" मनुष्य अपनी अक्षा तथा :" परलोइओ" ५४ नति भने तिय यातिनी अपेक्षा " अप्पसुहो" भ६५सुम पाणे! तथा "बहुदुक्खो" पधारे दुःभवाण छ, “ महन्भो " मा मय'४२ छ, “ बहुरयप्पगाढो" तेभा २ विधुर भ३५ २०४ने। मध डाय छे ते ultd-मोड! भुवी निवा! ४४य तेवा-डाय छ, तथा " दारुणो" ते ५१३५ qिus हा३-मय'४२ “ कक्कसो" ४४१-6न, भने " असाओ" शत-शत वहनीय३५ छाय छे. “ वाससहस्से हिं " ते परिब ३५ ५।पर्नु ३॥ मने पक्ष्ये:५म भने सा॥२॥५म प्रभाए सुधा सागपायी “मुच्चइ” तमाथी टी श 2. “ अवेयइत्ता " तेनु ३० लाय. विन वाने “न अत्थी मोक्खो" भाक्षना प्राति यती नथा. “ति एवमासु" ते प्रतुं ४थन For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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