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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 6 www.kobatirth.org ? प्रश्नव्याकरणसूत्रे 1 मुकारणसएमु ' अन्येस एवमादिकेषु बहुषु 4 " ; अन्ने एमाइए कारणश तेषु = शिल्पादिभिन्नेषु परिग्रहोपादानशतेषु ' जावजीवं' यावज्जीवं नडिज्जए ' निमज्जते = निमरनी भवति । तथा ' संचिति मंदबुद्धी ' संचिन्वन्ति मन्दबुद्धयः परिग्रहम् । तथा ' परिग्रहस्सेव य अट्ठा करेंति' परिग्रहस्यैव च अर्था कुर्वन्ति, 'पाणाणवहकरणं ' माणानां वधकरम् = परिग्रहं कर्तुं प्राणिनां वधं कुर्वन्तीत्यर्थः तथा--' अलियनिय डिसाइस पओगे' अलीकनिकृतिसाति संप्रयोगान् अधिकम् -असत्यम् निकृतिः- मधुरवचनादिभिराश्वास्य वञ्चनम् सातिसंप्रयोगः - विगुणद्रव्येषु द्रव्यान्तरं संयोज्य प्रशस्तगुणभ्रमोत्पादनम् एतेषां इन्द्रः, तांस्तथोक्तान, परदव्य अभिनं परद्रव्याभिध्याम्-परद्रव्येषु परधनेषु अनेकविध प्रयोगों को भी ( सिक्खए ) सीखते हैं । ( अन्नेसु य एवमासु ) तथा इसी तरह के और भी इन शिल्पादिकों से भिन्न अनेक ( बहुकारणery) परिग्रह के सैकड़ों कारणों में परिग्रह को अर्जन करने की लालसावाला प्राणी ( जावजीवं ) जीवन पर्यंत (नडिलए) मग्न होता रहता है । (संचिणंति मंदबुद्धी ) इसलिये इस कथन से यही निष्कर्ष निकलता है कि जो मंदबुद्धि होते हैं वे ही उत्कट परिग्रह का संचय करते हैं | तथा ( परिग्गहस्सेव य अट्ठाए पाणाणवहकरणं करेंति) परिग्रह के निमित्त ही प्राणी प्राणियों के प्राणों को वध करते हैं तथा (अलिनियsि - साह संपओगे ) इस परिग्रह को लक्ष्य करके ही वे (अलियं) असत्य भाषण करते हैं (नियडि) मधुर २ भाषणों से दूसरों को विश्वास दिलाकर फिर उन्हें ठगते हैं, ( साइसंपओगे ) ओछी कीमत की में बहुमूल्य वाली वस्तु को मिलाकर उसे अधिक मूल्यवाली बनादिया वस्तु Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "" Fi " विविहाओ जोगजुजणाओ " वशीर आदि ने विध प्रयोगो પણ શીખે 'अन्नेसु य एवमाइएस' ” તથા તે કળાએ સિવાયના એ જ પ્રકારના ખીજા અનેક कारण ससु ” પરિગ્રહાના સેંકડા કારણેામાં પરિગ્રહને પ્રાપ્ત કરबानी सालसा वाजा व " जावजीवं " भाजु लवन " नडिजए " बीन रहे छे. “ संचिति मंदबुद्धी ” તેથી આ કથનથી એ જ ફલિત થાય છે તથા કે જે લેાકા મંદ”દ્ધિવાળા હાય છે તે જ ઉત્કટ પરિગ્રહના સચય કરે છે. 66 46 परिअडुने निमित्ते તથા परिग्गहस्सेव य अट्ठा पाणाणवहकरणं करें ति" પ્રાણી અથવા પ્રાણીઓના પ્રાણાના વધ કરે છે, તથા " अलिय - नियडि-साइ संपओगे" या परिग्रहुने लक्ष्य पुरीने ४ तेथे " अलियं " असत्य मोहो छे, “ नियडि " भीहां भीठां वयनोथी जीलमां पोताना अत्येविश्वास मा. वीने पाणथी तेने उगे छे. " साइपओगे " मोछी श्रीमतनी वस्तुनुं लारे કીમતની વસ્તુ સાથે મિશ્રણ કરીને તેને વધારે ભાવ ઉપજાવે છે, परदव्व (6 For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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