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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० ४ मनुष्यपरिग्रहनिरूपणम् पापकर्मणां विनष्टज्ञानावरणोयादिकर्मणां मूलमित्यर्थः, तथा 'अकिरियव्वं ' अबकरितव्यम् , त्याज्यम् , 'विणासमूलम् ' विनाशमूलम्-ज्ञानादिगुणनाशकारकम् , ' वहबंधपरिकिलेसबहुलं ' वधयन्धपरिक्लेशबहुलम्बधो-हिंसनं, बन्धोबन्धनम् , तज्जनिता परिक्लेशास्तापाः बहुलाः प्रचुरा यस्मिस्तं तथोक्तम् , तथा -'अणंतसंकिलेसकारणं' अनन्तसंक्लेशकारणम्-अनन्ता ये संक्लेशा दुःखानितेषां कारणम् । एतादृशं परिग्रहं चक्रवादयस्तद्भिन्नाश्च नराः संचिन्वन्ति । तेपूर्वोक्ताः 'लोभवत्था ' लोभग्रस्ताः तं धणकणग रयणनिचयं ' तं धन कनक रत्ननिचयं - पंडियाचेच ' पिण्डयन्तश्चैव संसारं-चतुर्गतिलक्षणम् , 'अतिवयंति' भाव वाला होने के कारण यह अशाश्वत है । (पावकम्मनेम ) ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का कारण मूल होने से यह पापकर्म का नेमभूत है। ( अवकिरियव्वं ) मुमुक्षुओं को छोड़ने योग्य होने के कारण यह अवकरितव्यं-त्याज्य है । ( विणासमूलं) ज्ञानादिगुणों के नाश का हेतु होने से यह विनाशमूल है । ( वहबंधपरिकिलेसबहुलं ) इसके भीतर वध-हिंसा, बंध-बंधन, और परिक्लेश-संताप ये सब बहुत अधिक रूप में हुए हैं। (अणंतकिलेसकारणं) इसीलिये यह जोवों को अनंतसंक्लेश कारण होता है। ऐसे इस परिग्रह को चक्रवर्ती जन आदि तथा इनसे भिन जो और मनुष्य हैं वे संचित करते रहते हैं। क्यों कि ये समस्त ही जन ( लोभघत्था ) लोभरूप कषाय से ग्रसित होते हैं । (तं घणकणगरयणनिचयं ) इसी कारण उस धन, कनक एवं रत्न के निचय को ( पंडियाचेव ) संग्रह करने में ही लगा रहा करते हैं । इसी कारण . “ पावकम्मनेमं" ज्ञाना१२jीय मा िन भूण ७।२९ वाथी ते ५५४ाना निमित्त ३५ छ, “ अवकिरियव्वं " भुभुक्षाने ते छ।3। योय होपाथी ते “ अवकरितव्यं " त्याrय छ, “विणासमूलं " ज्ञान गुण।। नाश ने भाटे ७६२९३५ डापायी ते विनाशभू छ. “ वहबंधपरिकिलेसकारणं " तेनी અંદર વધહિંસા, બંધ-બંધન, અને પરિકલેશ-સંતાપ. એ બધું વધારે प्रभाभा २७१ छ. " लोभघत्था " ते २णे ते ७वाने मनात सवेशસંતાપનું કારણ બને છે. એવા તે પરિગ્રહને ચકવર્તિ આદિ તથા તે સિવાયના બીજા જે માણસ હોય છે, તેઓ સંચય કરતા રહે છે, કારણ કે તે सपा ! “तं धणकणगरयणनिचयं " ते २0 ते। धन, न, भने रत्नना सभूलना “पांडियाचेव " संबड ४२वामा १ सीन २७ छ.. For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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