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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०० प्रश्नव्याकरणस्चे टोका--'जबू' इत्यादि सुधर्मा स्वामी पश्चमात्रद्वारस्वरूपं जिज्ञासमानं जम्बूस्वामिनं प्रति पाह'जंबू ' हे जम्बूः । एत्तो' इतशतुर्थास्रवद्वारादनन्तरं परिग्गहो' परिग्रहःपरिग्रहण परिगृह्यते मूर्छारूपेण मूच्छापरिग्गहोवुत्तो इति वचनात् धर्मोपकरणं विनेत्यर्थ इति या परिग्रहः = परिग्रहतनाम वक्ष्यमागविशेषणानुरोधात् परिग्रहशब्दोऽत्र परिग्रहतरुपरको द्रष्टव्यः । ' पंचमो' पञ्चमआरयो ‘णियमा' नियमातु-निश्चयेन भवति, नान्यःकश्चनातः परः आस्रवः ! अयं परिग्रह कथम्भूतः? इत्याह-'णामामणि' इत्यादि । 'णाणामणि-कणग-रयण-महरिह-परिमलसपुत्तदार-परिजण-दासो-दास-भयग- पेस्स-हय-गय-गो-महिस-उद-खरनिरूपित करते हैं-'जंबू एत्तो' इत्यादि। टीकार्थ-श्री सुधर्मा स्वामी पांचवें आस्रव द्वार के स्वरूप को जानने की इच्छचाले श्री जंबूस्वामी से कहते हैं-(जंबू ) हे जम्बू! (एत्तो) चतुर्थ आस्रव द्वार के बाद (परिग्गहो पंचनो आसको णियमा) परिग्रह पांचवां आस्रव द्वार नियम से है। इसके बाद और कोईआस्रव द्वार नहीं है यह बात “नियम" शब्द से सूत्रकार ने प्रदर्शित की है ग्रहण करना' अथवा ' जो भू बुद्धि से ग्रहण किया जावे' वह परिग्रह है क्यों कि शास्त्र में मूछाको परिग्रह कहा है ऐसी इस परिग्रह शब्द की व्युत्पत्ति है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह परिग्रह शब्द यहाँ परिग्रह रूप वृक्ष के अर्थ वाला जानना चाहिये क्यों कि इसे स्पष्ट करने के लिये जो सूत्रकार विशेषग इसी सूत्र में कह रहे हैं वे इसी बात की पुष्टि करते हैं। (णाणामणि-कणग-रयणमहरिय-परिमल-सपुत्तदार-परिजण-दासी-दास-भयग-पेस्स-हय-गो " जंबू एत्तो" त्याहि. પાંચમા આસવનું સ્વરૂપ જાણવાની ઈચ્છાવાળા જંબુસ્વામીને શ્રી સુધર્મા स्वामी ४ है-" जंबू" ! “ एत्तो" याथा व बा२ ५४ " परिग्गहो पंचमो सासवो णियमा" नियम प्रमाणे पायभु गाल द्वार परि. ગ્રહ આવે છે ત્યાર પછી બીજું કઈ પણ આસ્રવદ્વાર નથી તે બાબત "नियम " शपथी सूत्रारे तावेस छ. " मा २" अथवा रे ગ્રહણ કરાય તે પરિગ્રહ છે, એવી આ પરિગ્રહ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે. તે વ્યક્તિ પ્રમાણે આ પરિહ શબ્દ અહીં પરિગ્રહરૂપ વૃક્ષના અર્થવાળે, સમજવાને છે કારણ કે તે વાતને સ્પષ્ટ કરવાને માટે સૂત્રકાર જે વિશેષણે. ॥ सूत्रमा ४ी २६॥ 2 ते ४२ पातने टे या छ. “णाणामणिकजय-रयण-मक्रिड्-परिमल-खपुत्तदार-परिजण-दासी-दास-भयग-पेस्स-हय-गो. For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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