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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नण्याकरणसूत्रे सुरूपविशुन्मत्याः, रोहिण्याच, तत्तत्स्थानप्रसिद्धायाः कृते संग्रामा अभूवन् । आसां चरितं तु ततद्ग्रन्थेभ्योऽबसेयम् । अण्णे य एवमाइया बहनो महिलाकए' अन्ये चैयनादिकाः = एवं प्रकाराः बहवः-अनेके महिलाकृते स्त्रीनिमित्तं ' अतिकता' अतिक्रान्ताः भूतपूर्वाः ‘गामधम्ममूला ' ग्रामधर्ममूला:= मैथुन मूलकाः 'संगामा' संग्रामा जाता इति, 'मुवंति' श्रूयन्ते लोके शास्त्रे च । ते चाब्रह्मसेविनः ' इहलोए तापनहा' इहलोके तावनष्टाः = परस्त्रीगमनेनाऽऽस्मविराधका जाताः, 'परलोए य नट्ठा' परलोके च नष्टाः असद्गति प्राप्ताः केन केन प्रकारेण परलोको नष्टामवन्तीत्याह-इतो मृत्वा 'महयामोहतिमिरंधयारे' महामोहतिमिरान्धकारे-महामोह एव तिमिरान्धकारः गाढान्धकारो यत्र स तथा तस्मिन् घोरे-भयङ्करे एतादृशे नरके गच्छन्ति । ततो निःसृत्य 'तसथावरमुहुमवायरसु' त्रसस्थावरसूक्ष्मवादरेषु ' तथा 'पजतमयजत्तासरूप विद्युन्मती के निमित्त और रोहिणी के निमित्त संग्राम हुए हैं ( अण्णे य एवमाइया बहवो) तथा इसी तरह के और भी अनेक (अहकता) भूतपूर्व संग्राम ( महिलाकए ) इसी मैथुन सेवन निमित्तक हुए (सुव्वंति) लोक और शास्त्र में सुने गये हैं। :( अयंमसेविणो इहलोए तावनट्ठा परलोए य नट्ठा ) ये अब्रह्मसेवीजन इसलोक में तो नष्ट होते ही है, साथ २ में परलोक में भी नष्ट होते हैं, अर्थात् परस्त्री सेवन से जीव इसलोक में आत्मविराधक होकर परलोक में भी अस. इति को प्राप्त करते हैं। जब वे यहां से मरते हैं तब ( महया मोह तिमिरंधयारे ) महामोहरूप गाढ अंधकार से आच्छादित हुए (घोरे) भयंकर नरक में जाकर उत्पन्न होते है। वहां से जब वे निकलते हे तब विधु-भती निमित्त, भने डिमान निमित्त सामी या ता, “ अण्णेयपवमाइया बहवो" तथा ते ५२न! wlan ५] भने “अइक्कंता" भूत न सामी " महिलाकए " मे भैथुन सेवनने निमित्त थयार्नु " सुव्वंति" सोम तथा शालोमा सालवामां आवे छ.. ____“ अबंभसेविणो इहलोए तावनदा परलोए य नवो" ते भैथुनસેવી કે આ લેકમાં તે નાશ દુર્દશા પામે જ છે પણ પાકમાં પણ નષ્ટ થાય છે, એટલે કે પરસ્મસેવનથી લેકે આ લેકમાં આત્મવિરાધક થઈને પરલોકમાં પણ દુર્ગતિ પ્રાપ્ત કરે છે, જ્યારે તેઓ અહીંથી મરણ પામે छ त्यारे " महया मोहतिमिर धयारे" मडामा ३५ ॥८ माथी पाये। “पोरे" १५४२ १२७म ने Sya थाय छे. त्यांची नजाने तमा For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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