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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे भवन्ति । कयोयोलोकयोः इत्याह इहलोए चेत्र परलोए' इहलोके चैव-इहजन्मनि परलोके च परजन्मनि । के ते? इत्याह–'परस्स दाराओ जे अविरया' परस्य दारेभ्यो येऽविरताः परस्त्रीपरायणाः । 'तहेब' तथैव — केइ' केचित् 'परस्स दारं गधेसमाणा' परस्य दारान् गवेषमाणाः = परस्त्रियमन्वेषयन्तः, 'गहिया य ' गृहीताश्च जनैः 'हयाय ' हताश्च ताडिताः 'बद्धरुद्वा य' बद्धरुदाश्व-रज्ज्मादिभित्र द्वाः सन्तः पञरादौ निरुद्धाच एवं ' जाव गच्छन्ति ' यावत्-अधोगति प्राप्नुवन्ति । अत्र यावत्पदग्रहणेन तृतीयाध्ययनस्थितः । गहियाय बद्धद्धा य ' इत्यारभ्य नरए गच्छंति गिरभिरामे' इत्येतदन्तः पाठोत्रबोध्य इति भूचितम् । के ते इत्याह-ये 'मोहाभिभूयतण्णा' मोहाभिभूतसंज्ञाः मोहे अज्ञानेन कामान्धतया वा अभिभूता-परीभूता नष्टा संज्ञा-सदसद्विवेकमज्ञा दोनों लोकों में-इस लोक और परलोक ( दुराराहगा ) आत्म विरोधक ( भवंति ) बनते हैं । तथा ( तहेव ) इसी प्रकार ( केइ परस्सदारं गवेसमाणा ) जो परस्त्री की गवेषणा करने में रत रहते हैं वे यदि उस कार्य को करते समय (गहिया य ) पकड़ लिये जाते हैं तो ( हयाय ) बहुत बुरी तरह ताडिन किये जाते हैं । और ) ( बद्ध रूद्धा य ) रस्सी आदि से बांधे जाकर पंजर आदि में बंध कर दिये जाते हैं। (एवं) इस तरह (जाव ) यावत् यहां यावत् शब्द से तृतीय अध्ययन में कथित “ गहिया य बद्धरुद्धाय" इस पाठ से लगाकर "नरए गच्छंतिणिरभिरामे ) यहांतक का पाठ लिया गया है। जिससे यह समझाया गया है कि अन्त में ऐसे जीवोंकी बडी दुर्दशा होती है और वे भर कर नरक में जाते हैं। क्योंकि (विउलमोहाभूयसण्णा) ऐसे मनुष्यों का विपुल अज्ञान से अथवा कॉमान्धता से मद सद्विवेक बिलकूल नष्ट होता " दुराराहगा' मात्मविश५४ " मवेति " मन छ. “ तहेव" 2 प्रभाग ' केइ परस्सादार गवेसमाणा " 2 ५२वीनी दीन २७ छ, तेमा २ ते आय ४२ती मते " गहिया य" ५४315014 तो " हयाय” पाणी 1 राम शते तेमने भावामा सावे छ, भने "वरुद्धाय" हो माहिया डीन ५४२ हिमां पूरी धाम मा छ. “ एव" सारीत " जाव " यावत्-२ यावत् १५४ पडे Not मध्ययनमा ४ “ गहियोय बद्धरुद्धाय” थी सन " नरए गच्छंति गिरभिरामे" सुधीन। पाठ सेवामा આવેલ છે. તેમાં એ સમજાવવામાં આવ્યું છે કે છેવટે તે જીવોની દશા બૂરી था छ भने ते! भरीने १२४मा तय छ, १२६१ "विउलमोहा. भूचमण्णा" એવા મનુબેને સદવિવેક, અજ્ઞાનથી અથવા કામાંધતા ને લીધે બિલકૂલ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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