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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुशिनी टीका अ० ४ सू० १४ चतुर्थमन्तधारनिरूपणम् शब्दादि विषयविषयस्य प्रवर्त कैः ‘सत्थेहिं ' शस्त्रैः 'एक्कमेवक' एकैकं = प्रत्येक 'हणंति' नन्ति। 'अवरे' अपरे केचित् 'परदारेहि' परदारैः परस्त्रीमिः ‘हम्मति' हन्यन्ते मार्यन्ते, 'परदारै-रित्यत्र कर्तरि तृतीया । यद्वा हेतौ तृतीया-परदारानिमित्तीकृत्य अन्यैबलवद्भिः पारदारिकैहन्यन्ते । 'विसुणिया ' विश्रुताः पारदारिकत्वेन प्रसिद्धाः सन्तः केचित् 'धगणासं ' धननाशं = ' सयणविप्पणासं' स्वजनविप्रणाश स्वजनवियोग ' पाउणंति ' प्राप्नुवन्ति, अयं भावः राजपुरुषास्तत्रागत्य परदारिकाणां धनं गृह्णन्ति, परदारिकं बद्धा दण्डनार्थ दण्डस्थानं नयन्ति च । यद्वा-परदारप्रसादनार्थ स्वकीयं पित्राद्युपार्जितं धनं परदारेभ्यः प्रय(मोहभरिया ) उस मैथुकरूप कर्म के मोहसे भरे हुए होने के कारण, अधवा-विवेक से विकल बने रहने के कारण (विसयविस उदीरएहिसत्थेहिं एक मेक्कं हणंति ) शब्दादि विषयरूप विषय के प्रवर्तक शस्त्रों से आपस में एक दूसरे को मार डालते हैं । ( अवरे ) कितनेक प्राणी (परदारेहिं हम्मति ) परस्त्रियों द्वारा मार दिये जाते हैं। अथवा परस्त्री को निमित्त करके अन्य बलशाली पारदारिक पुरुषों द्वारा मैथुनसंज्ञा में आसक्त मतिवाले व्यक्ति मार दिये जाते हैं । ( विसुणिया ) पारदारिक परस्त्री-लम्पट रूप से प्रसिद्ध हुए कितनेक मनुष्य (धणणासं) अपने धनके विनाश को और ( सयणविपणासं) आत्मीयजनों के विनाशको ( पाउणंति ) प्राप्त करते हैं। तात्पर्य इसका यह हे की परस्त्रीलंपट व्यक्ति के पास राजपुरूष आकर उसके धन को छीन लेते हैं। और बांधकर उसे दंड देने के निमित्त कारागार में ले जाते हैं। अथवा-परस्त्री को प्रसन्न करने के लिये पारदारिक मनुष्य अपने पिता आदि द्वारा उपानित पाने ४।२६, २५५१५ (4३४ हित मनी पाने ४२ 'विसयविसउदीरएहिं सत्थेहिं एकमेक हणंति " Avad विषय३५ विषन! प्रया२४ शस्त्रो १३ ५४२। म२ सीन में भी ने भारी नामे छ. “ अवरे" या दो। "परदारेहिं हम्मति" ५२त्री द्वारा वाय छे. अथवा ५२स्त्रीने २0 બીજા બળવાન પરસ્ત્રીગમન કરનારા પુરુષે દ્વારા મૈથુન સેવનમાં આસક્ત पुरुषाने भारी नापामा मावे छे. “ विसुणिया" ५२२६ ५८ गाता ३८८ पुरुषो “धणणासं" पाताना धनना नाश भने “ सयण विप्पणासं" मात्मीय बनानी नाश " पाउणंति "नात छ. तना लावा स छ પરસ્ત્રગામી પુરુષની પાસેથી રાજપુરુષો તેમનું ધન જપ્ત કરે છે, અને તેને બાંધીને શિક્ષા કરવાને માટે કેદખાનામાં લઈ જાય છે. અથવા પરસ્ત્રીને રીઝ. વવા માટે પરસ્ત્રીગામી પુરુષ પિતાના પિતા આદિ દ્વારા ઉપાર્જિત ધન તે For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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