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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ४ १२ युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् ४७ कौमला अविरलौ-परसरमिलितो समसंहितौ उचितपमाणयुक्तौ वृत्तौ वर्तुलौ पीव. रौ-पीनौ निरन्तरौ-परस्परसम्बद्धौ अरू जानूपरितनभागौ यासां तास्तथा 'अट्ठावधवीइ-पट्ट-संठियपसत्य वित्थिण्णपिडुलसोणी' अष्टापदवीचिपृष्ठ संस्थितप्रशस्तविस्तीर्ण थुल मोण्य: अष्टापदस्य-जूनविशेषस्य वीचय इव वीचया तर. झाकृतिरेखाः ताक यत् पट्ट-फलकः, तद्वत् संस्थिता= तत्संस्थानयुक्ता तदाकतिका प्रशस्ता विस्तीर्णा पृथुला-विशाला श्रोणि कटिभागा यासां तास्तथा 'वयणायामप्पमाणदुगुणियविसालमंसलसुबद्धजहणवरधारिणीओ' वदनायामप्रमागाद्विगुणितविशालमांतलसुबद्भजघनवरधारिण्यः = वदनस्य = मुवस्य यः आमः विस्तारस्तस्य यत् प्रमाणं तस्माद्विगुणितं चतुर्विंशत्यगुलमित्यर्थः, बिशालं तथा मांसलं-पुष्टं सुबद्धं शैथिल्यवर्जितं जघन्नवरं बरजघनं कट्याः पुरोभागं धारयन्ति यास्तास्तथा ' बज्जविराइयपसत्थलच्छणनिरोदरीओ' वत्र होता हैं । अत्यंत कोमल होता है । अविरल-परस्पर मिला हुआ होना है। समसंहित-उचितप्रभाग से युक्त होता है । घृत-वर्तुल-गोल होता है। पीवर-पीन-पुष्ट होता है । निरन्तर परस्पर संबद्ध होता है। ( अट्ठावयवीइपट्टमंठियपसविस्थिण्णपिहुलमोणी ) इनका कटिभाग तविशेष की वीचियों के समान तरङ्गाकृति रेग्वाओं से युक्त फलक के जले आकार वाला होता है, प्रशस्त होता है, विस्तीर्ण होता है तथा पृथुल विशाल होता है । ( वयणायामपमाणदुगुणियविमालमंसलसुबद्ध जहणवरधारिणीओ ) इनकी कटिका पुरोभाग-जघन प्रदेश-मुख के विस्तार के.प्रमाण से द्विगुणित होता है-अर्थात्-चौबीस अंगुलका होता है, विशाल-पृथुल, एवं मांसल-पुष्ट होता है। सुबद्ध-शैथिल्य विहीन- होता है । ( वजविराइयपसत्थलच्छणनिरोदरिओ) इनका ५२२५२ जायेद हाय छ, समसंहित-योग्य प्रमाणवाणी-प्रभासरनी हाय छ, आज हाय छ, पीवर-पुष्ट डाय छ, भने नि२-१२-५२२५२ मा राय छे. " अट्ठावयवीइप-संठिय-पसत्थ वित्थिण्ण-पिहुलमोणी" तेमनी टिभागात વિશેષની વીધિના સમાન તરંગાકૃતિ રેખાઓથી યુક્ત ફલકના જેવા આકારવાળો હોય છે, પ્રશસ્ત હોય છે. વિસ્તીર્ણ હોય છે તથા પૃથુરુ-વિશાળ होय छे. “वयणायामप्पमाणदुगुणिय विसालमंमलसुबद्धजरणवरधारिणीओ" તેમની કોટિનો આગળનો ભાગ જઘન પ્રદેશ–મુખને વિસ્તાર કરતાં બે ગણું માપનો હોય છે, એટલે કે વીસ આંગળને હોય છે. વિશાળ અને भांसद पुष्ट डाय छ, सुपर शैथिक्ष्य विडीन डाय छ, “ वज्जविराइय पसस्थलणनिरोदरीयो" तमना रन। माग 400 वो सु४२, मेटले है For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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