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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे केसभूमी सामलि-पोंडघण-निचियच्छोडिय-मिउविसय पसस्थसुहमलक्खणसुगंधिसुंदरभुयमोयगभिंग-नीलकज्जलपहिट्ठ भमरगण-निद्धनिउरंब-निचियकुंचिय - पयाहिणावत्तमुद्धसिरया सुजाय-सुविभत्त-संगयंगा-लक्खणवंजणगुणोववेया पसस्थबत्तीसलक्खणधरा हंसस्सराकोचस्सरा दंदुहिस्सरासीहस्सरा मेहस्सरा ओघस्सरा सुस्सरा सुस्सरनिग्घोसा बजरिसह नारायसंघयणा समचउरंससंठाणसंठिया घायउज्जो वियंगमंगा पसत्थछवी निरायंका कंकगहणी कवायपरिणामा सउणिपोसापिटुंतरोरुपरिणया पउमुप्पल--सारसगंध-साससुरभिवयणा अणुलोमवाउवेगा अवदायनिद्धकोसा विग्गहियउण्णाय कुच्छीअमयरसफलाहारी तिगाउय समुच्छियातिपलिओवमट्टितिया तिण्णिय पलिओवमाइं परमाउं पालइत्ता तेवि उवणमंति मरणधम्म अवित्तिता कामाणं ॥ सू० ११ ॥ टीकाः-'भुयगी-सर-विउल-भोग-आयाण-फलिह-उच्छूढदीवाहू' तत्र'भुयगीसर' भुजगेश्वरः सर्पराजस्तस्य यो विपुलो भोगः महान् कायः तद्वत् तथा ' आयाण ' आन-आदीयत इत्यादानम् आदेयः-मुन्दरो यः ‘फलिह' परिघा-कपाटरोधनकाष्ठं, स च 'उच्छूट' उत्तिप्तः स्वस्थानाद् वहिनि कासितः, तद्वत् 'दीह' दोर्षों बाहू येषां ते तथा भुजगतुल्यपरिघाल्यलम्बमान फिर ये भोगभूमि के जीव कैसे होते हैं ? इसी विषय को सूत्रकार पुनःस्पष्ट करते हैं-'भुयगीसर ० ' इत्यादि । टीकार्थः-- ( भुयगीसर-विउलभोग-आयाण-फलिह-उच्छूढदीह . पाहू ) सर्पराज के विपुल शरीर के समान तथा अपने स्थान से बहार किये हुए सुन्दर परिघा के समान, जिनकी दोनों भुजायें दीर्घ-लंबी તે ગભૂમિના જ કેવા હોય છે, તેનું સૂત્રકાર હજી વધુ સ્પષ્ટીકરણ ४३ छ " भुयगीसर " त्याहि. टी -'भुयगीसर-विउल-भोग-आयाणफलिह-उच्छूढदीह-शाहू" हेमनी ने ભુજાઓ સર્પરાજના વિશાળ શરીર જેવી, તથા તેના સ્થાનેથી બહાર કાઢવામાં For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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