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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४२ प्राण्याकरण सू तउवयवित्थिष्ण पिहुलवच्छा 'कनकशिलातल - प्रशस्त समतलोपचित विस्तीर्ण पृथुलवक्षसः = कनकशिलातलं = सुवर्णशिलापट्टकमित्र प्रशस्तं समतलम् - अविषमं उपचितं - पुष्टं - विस्तीर्ण= विशालं तथा पृथुले स्थूलं वक्षःक्षः स्थलं येषां ते तथा 'जय संणिभ पीणरइय- पीवर - पउट्ट संद्विय-सुसिलिट्ठ - विसिद्धलट्ठ - मुणिचिय- पण थिर मुबंध, संधी ' तत्र ' जुयसंणिम ' युगसन्निभौ - युगकाष्ठतुल्यौ 'पीण' पीनौ स्थूलौ 'रइय' रतिदौ= रमणीयौ पीवरौ पुष्टौ 'पउट्ट' प्रकोष्ठौ हस्तमणिबन्धप्रदेशतथा 'संठिय' संस्थिताः = संस्थानविशेषयुक्ताः 'सुसिलिट्ठ' मुश्लिष्टाः सुमिलिताः 'विसिट्ठलट्ठ' विशिष्टलष्टा:= सुमनोहराः 'सुणिचिय' सुनिचिताः = सुसंगठिताः घनाः 'थिर ' स्थिरा=सुहाः सुबन्धाः शोभनावयवसन्निवेशयुक्ताः सन्धयः = अस्थि सन्धानानि येषां ते तथा 'पुरवरफलिह-ट्टियभुया पुरवरपरिघवर्तित भुजाः=पुरवरपरिववत्= नगरद्वार कपाटरोधनकाष्ठवद् वर्तितौ वर्तुलौ भुजौ = वाहू येषां ते तथा । एतादृशास्तेऽपि कामभोगैरतृप्ता एव मरणधर्ममुपनमन्तीतिसम्बन्धः || सू० १० ॥ 4 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समान निर्मल, सुन्दर रोगरहित शरीर के धारी होते हैं (कणगसिलातलपसत्थसमतल उचइयविस्थिणपिहुलवच्छा ) तथा जिनका वक्षस्थल सुवर्णशिला के पट्टक समान प्रशस्त एवं समतल वाला होता है उपचित-पुष्ट होता है, विस्तीर्ण होता है तथा पृथुल- थूल - मोटाहोता है (जयसंणीभपीण-रइयपीवर उडुठियमुसिलिगुवि सिद्वलद्वसुणिचिघणरबंध संधी) इनका मणिबंध प्रदेश जुआ के समान स्थूल, रमणीय और पुष्ट होता है। तथा इनके हाड़ों की संधियां संस्थानविशेष से युक्त, परस्पर अच्छी तरह मिली हुई, मनोहर, सुसंगठित, घनीभूत, सुदृढ़ एवं अच्छी अवयवों की रचना से युक्त होती है । (पुरवर फलिहवा ) इनके दोनों बाहु नगर के द्वार के उत्तम For Private And Personal Use Only - “ જેએ સૂવણના આભૂષણા જેવુ' નિમ`ળ, સુંદર અને નીરોગી શરીર ધરાવે छे, " कणगसिलातलप सत्य समतल उवइयवित्थिष्ण पिहुलवच्छा " તથા જેમની છાતીના ભાગ સુવર્ણ શિલા જેવા પ્રશસ્ત સમતલ, ઉપચિત-પુષ્ટ, વિસ્તીણુ विशाण तथा पृथुल - मोटो होय छे, “जुयस णिम-पीण - रइय- पीवर - उट्ठ- सठिय सुसिलिट्ठ - विसि - लट्ठ - सुणिचिय- घणथिर - सुबंधसंधी ” तेमना मला धूसरी नेवा સ્થૂળ, રમણીય અને પુષ્ટ હાય છે. તથા તેમનાં અસ્થિયાના સાંધા સુવ્યવસ્થિત परस्परस सारी रीते लेडायेस, मनोहर, सुसंगठित, घनीलूत, सुदृढ, मने अवयवोनी सुंदर स्यना वाजा होय छे " पुरवरफलिहवट्टियभुया " तेभनी અને ભુજા નગરના દરવાજાના ઉત્તમ ભાગળ જેવી ગાળાકાર હાય છે, એવા
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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