SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०४ चक्रवर्त्यादिवर्णनम् ४०५ मनुजाः = मनुष्या - मांडलिकादयश्च तेभ्यः- तत्सकाशाद ये भोगाः शब्दादयः, तेषु या रतिः =अनुरागस्तेन ये विहाराः = विविधमकारचेष्ठारूपाः क्रीडाः तैः सम्प्रयुक्ताः = सहिताः ये ते तथा के ते ? इत्याह- ' चकवड्डी ' चक्रवर्तिनः, कीदृशास्ते चक्रवर्तिनः ? इत्याह-' सुरनरवाइ सकया ' सुरजरपतिसत्कृता:= सुरैः=देवैः नरपतिभिः=नृपैश्च यद्वा 'पति' शब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् सुरपतिभिर्नरपतिभिचेत्यर्थः, सत्कृताः = सम्मानिताः, 'देवलोए' देवलोके 'सुरवर' सुरवरा इव महर्द्धिक देवा इव । देवलोके यथा देवाः सुखमनुभवन्तः ' भरहनगणगर निगमजणत्रय पुरवर दोणमुखेड कन्डम डंव संवाहपट्टणसहस्समंडियं ' तत्र ' भरह ' भरतस्य=भारतवर्षस्य सम्बन्धिनो ये नगाः = पर्वताः ' णगर ' नगराणि - अष्टादशकर वर्जितानि, 'णिगम ' निगमाः = वणिग्जननिवासाः ' जणवय ' जनपदा: - देशाः, पुरवराणि - राजधानीरूपाणि, 'दोणमुह' द्रोणमुखानि जलस्थलमार्गयुक्तानि ' खेड' खेटानि = धूलिमाकारमयानि ' कब्बड ' कर्वटानि = प्राणियों मनुष्यों -मांडलिक राजा आदि जनों के द्वारा संपादित शब्दादिक भोगो में अनुराग जन्य विविध प्रकारकी चेष्टारूप क्रीडाओं से युक्त ऐसे (चक्की) चक्रवर्ती भी इन कामभोगों से तृप्त नहीं होते हैं (सुरनरवहसक्कया) जो चक्रवर्ती सुरों से-देवताओं से, अथवा सुस्पतियोंइन्द्रों से एवं नरपतियों - राजाओं से विशेषरूप में सदा सन्मानित किये जाते हैं तथा ( देवलोए सुरवरव्व ) जिस प्रकार देवलोक में महर्द्धिक देव सुखोंकों भोगा करते हैं उसी प्रकार जो सुखोंको भोगते हैं। तथा जो ( भरहनग - नगर-निगम-जणत्रय - पुरवर- दोणमुह- खेडकवड -- मडंब संवाहपट्टण- सहस्स-मंडियं ) भारतवर्ष संबंधी हजारों १८ अठारह प्रकार के करों से रहित नगरों से वर्णिग्जननिवासभूत हजारों निगमों से, हजारों देशों से, राजधानियांरूप श्रेष्ठ पुरों से, जलमार्ग स्थलमार्ग રાજા આદિ લોકો દ્વારા સ'પાદિત શબ્દાદિક ભાગામાં અનુરાગ જન્ય વિવિધ अारनी येष्टाइप डीडामोथी युक्त सेवा " चक्कवट्टी " यवती पशु કામભાગોથી તૃપ્ત થતા નથી, “ सुरनरवइसकया " ने यवर्ती भानुं देवताओ વડે, સુરપતિએ ઇન્દ્રો વડે અને નૃપતિ વડે સત્તા વિશેષરૂપે સન્માન કરાય छे, तथा “ देवलोए सुखव्व ” દેવવેકમાં જેમ મહદ્ધિક દેવા સુખો ભોગવ્યા કરે છે, એજ પ્રમાણે જે સુખા ભાગવે છે, એવા ચક્રવતી આ પણ કામભોગોથી तृप्ति यामता नथी, तथा ने "भरह - नग - नगर-निगम जणवय- पुरवर - दोणमुहखेडकब्बड-मडव-संवाह-पट्टण - सहस्स– मंडिय' " लारतवर्षना उन्नरों पर्वताथी, અઢાર પ્રકારના કરેથી રહિત નગરથી, વિષ્ણુક લેાંકા રહેતા હોય એવાં હારા નિગમેથી, હજારો દેશેાથી, હજારો રાજધાનીરૂપ શ્રેષ્ઠ શહેરાથી, જળમાર્ગ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy