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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे मैथुनपरिग्रहरूपा ये आरम्भाः व्यापारास्तेषां यानि करणकारणानुमोदनानि= करणं स्वयं, कारण अन्यैरनुष्ठापनम् , अनुमोदनं च कृतकारितादेः प्रशंसन मित्येतैः प्रकारैः 'अद्वविह ' अष्टविधं यत् 'अनिट्ठक्कम्मपिडिय' अनिष्टकर्मपिण्डितं-दुःखदकर्मसञ्चयः तदेवगुरुभारस्तेन ' अक्कंत' अक्रान्ता थे जीवास्तेषां दुर्गाण्येव-दुःखान्येव यो ' जलोघ' जलौघा जलपूरः तत्र दूर अत्यर्थ 'निवोलिज्जमाण' निवोल्यमानाः ब्रुड्यमानाः, 'उम्मग्गनिमग्ग ' उन्मग्ननिमग्नाश्च =दुखरूपजले उर्धाऽधो गम्यमानाः ये माणिनस्तैः ‘दुल्लहतल' दुर्लभतलंदुर्लभं दुष्याप्यं तलं यस्य स तथा तं-हिंसाऽलीकादिपञ्चास्रवनिताऽष्टविधकर्मभाराक्रान्तैः नानाविधदुःखरूपागाधजले निमज्जनोन्मज्जनं कुर्वद्भिर्जी वैर्दुष्पाराऽकराना अनुमोदन करना, इन पूर्वोक्त प्रकारों से जो (अविह अणिट्ठ कम्मपिडिय) दुःखद आठ प्रकारके कर्मोका संचय होता है, उस कर्म संचय रूप भार से (अकंत) आक्रान्त-भारी घने हुए तथा (दुग्गजलोघ) दुःख रूप जलसमूह में ( दूरनिब्बोलिज्जमाण ) अत्यन्त डूबते हुए तथा (उमग्गनिम्मग्ग) ऊय डूब करते हुए अर्थात् ऊँचे नीचे आते हुए ऐसे प्राणियों के लिये यह संसार समुद्र ( दुल्लहतलं) अलभ्य तलवाला है अर्थात् इस संसार समुद्र को पूर्वोक्त प्रकार के जीव पार नहीं कर सकते हैं । अर्थात् इस संसारसमुद्र का तल-थाह ऐसे जीवोंसे अप्राप्त है जो हिंसा, झूठ, अदत्तादान, भैथुन, परिग्रहरूप आरंभो के करना, कराना, एवं उनकी अनुमोदना में लगे हुए हैं, क्यों कि इन पूर्वोक्त प्रकारों से वे जीव दुःखद अष्टविध कर्मों का संवय कर लेते हैं इस कारण उन पर इसका बहुत भारी भार हो जाता है। इससे वे दब जाते ४२वी, में पूर्वरित ४ारे रे " अविहअणिठुकम्मपिडिय" मा ५२नi, मह नि! 'यय थाय छ, ते भसंयय३५ माथी " अकंत' 240xitमारे मनेस तथा दुग्गजलोघ " ३५ समां दुरनिव्वोलिजमाण " अत्यात मता, तथा “ उम्मग्गनिमग" पाणीमा ४२०i-2 नीय मावत सेवा प्राणीमाने भाटे मा संसार समुद्र "दुल्लहतलं" असल्य तaવાળો છે એટલે કે આ સંસારસાગરને પૂર્વોક્ત પ્રકારના છે. તરી શકતાં નથી. એટલે કે હિંસા, જૂહ, અદત્તાદાન, મિથુન, પરિગ્રહરૂપ આરંભ કરનાર, કરાવનાર અને તેમની અનુમોદના કરનાર ને આ સંસારસાગરને કિનારે પ્રાપ્ત કરે અશક્ય છે. કારણ કે પૂર્વોકત પ્રકારે તે છે આઠ પ્રકારનાં દુઃખદ કર્મોને સંચય કરે છે. તેથી તેમના પર તેમને ઘણે ભારે બોજો હોય છે. તેનાથી તેઓ દબાઈ જાય છે, અને વિવિધ પ્રકારનાં For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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