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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे णादिलक्षणैः कर्मभिर्वद्धाथ ये 'सत्त' सत्त्वाः पाणिनस्तथा 'कड्रिज्जमाण' कृष्यमाणाः कृष्यकर्मवन्धनेन रज्जुबद्धकाष्टमिव नरकं प्रत्याकृष्यमानाः 'निरयतल' नरक एव तलं-पातालं ‘दुत्त' तद्भिमुखं 'सण्ण' सन्नाः नरकरूपपा. तालगमनाभिमुखत्वात् खिन्नाः तथा 'विसण्ण' विषण्णाश्च ' शोकातिशयं प्राप्ताः ये प्राणिनस्तै बहुलो यः स तथा तम् । तथा 'अरइरइभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं ' अरतिरतिभयविषादशोकमिथ्यात्वशैलसंकटं = तत्र-अरतिः = धर्मेरुचिः रतिः विषयेषु रुचिः भयं-इहलोकादि सप्तभयानि विषादः अनिष्टसंयोगजनितदुःखं शोक-इष्टवियोगजनितदैन्यं मिथ्यात्वं च कुदेवकुगुरुकुधर्मश्रद्धालक्षणमित्येतान्येव शैलाः पर्वतास्तैः सङ्कटः विषमो यः स तथा तम् , अरत्यादि और इन उपहारों से इसमें (गहियकम्मपडिबद्धसत्त) ज्ञानावरण आदि कर्मों से बद्ध प्राणी गृहीत बने हुए हैं। तथा ( कडिज्जमाण) पूर्वकृत कर्मबंधन के द्वारा रज्जु बद्ध काष्ठ की तरह यहां वह प्राणिवर्ग नरक की और खेचा जा रहा है और (निरयतलदुत्त) नरकतक की ओर गमन करने में सन्मुख होनेकी वजह से यहां वह प्राणीवर्ग (सण्णविसण्णबहुलं) सन्न-खिन्न, एवं विषण्ण शोकातिशय को प्राप्त हो रहा है। तथा (अरइरइभयावसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं ) (अरइ) अरतिधर्ममें अरुचि, (रइ) रति-विषयों में रुचि, (भय) इहलोकभय, परलोकभय आदि सात भय, (विप्ताय) विषाद-अनिष्ट संयोग जनित दुःख, (सोग) शोक-इष्ट वियोग जनित दैन्यभाव, (मिच्छत्त ) मिथ्यात्वकुगुरु, कुदेव और कुधर्म की श्रद्धा, ये ही सब इस संसारसमुद्र में (सेल) पर्वत जैसे है सो इन पर्वतोंसे यह (संकडं) विषम बना हुआ है। उपहार ४१२२ रन्तु विशेष लरेस छे भने ते ७५४ाशयी तमा “ गहियकम्भपडिबद्धसत्त" ज्ञान॥१२ मा थी माये प्राली स५॥येत छ. तथा " कड्ढिज्जमाण" पूर्व ४२८i भी द्वारा, हो२९४थी iधेसा 18 म ते प्राणीमा न२४नी त२३ या २ा छ, भने “निरयलदुत्त” १२४ १२५ गमन ४२वाने मलिभुम डावाने २२ ते प्राणी। “सण्णविसण्णबहुलं " भिन्न भने मतिशय ४ युत थ रह्यो छ. तथा “ अरइ-रइभय-विसाय-सोगमिच्छत्त सेलसंकड” “ अरइ" भति-यममा मरुथि, "रइ” २ति-विषयोमा २ति, "भय " मानो लय, परसोनी लय माहि सात लय, “विसाय” विषाहमनिट सयानित हुम " सोग" \-5ष्ट वियो। नित हैन्यमाप, " मिच्छत्त" भिथ्यात्व. शुरु, अद्वेष भने सुधमनी श्रद्धा, मे मधु । ससा२।२भा “ सेल" ५१त २ छ, मे पताथी ते “संकडं " विषम For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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