SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३४६ www.kobatirth.org प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'बंधुविप्पहीणा' बन्धुविप्रहीणाः =बन्धुवियुक्ताः, 'दिसोदिसि विपिक्खता' दिशो दिशं विमेक्षमाणाः एकरपा दिशोऽन्यां दिशं पश्यन्तः 'मरणभयुच्चिग्गा ' मरणभयोद्विग्नाः=मृत्युभयव्याकुला:='आघायणपडिदुवारसं वानिया' आवातनमतिद्वारसंभाविताः = आघातनमतिद्वारं = बध्यभूमिद्वारं तत्र संप्रापिता:नीता ये ते तथा, ' अघण्णा ' अधन्याः- भाग्यहीनाः अदत्तादायित्वात् 'सूलगविलग्गभिण्णदेहा शूलाग्र विलग्नभिन्नदेहाः, तत्र - शूलाग्रे विलग्नः = आरोपणेन संलग्नः भिनव देहो येषां ते तथा ' ते ' ते च = अदत्तादायिनः ' तत्थ ' तत्र घातनद्वारे वधबन्ध मारण निर्भर्त्सना लारोपणादि यातनास्थाने 'परिकप्पियंगुरंगा' परिकल्पिता ङ्गोपाङ्गाः कर्त्रीप्रभृतिशस्त्रेः कर्त्तितकर्णनासिकाश्रवयवाः ' कीरंति ' क्रियन्ते, दण्डविधायिराजपुरुपैरिति । सू० १६ ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ये बिना बंधु के होते हैं । ( बंधुविप्पहीणा ) बांधवजन होने पर भी वे इन्हें छोड़ देते हैं । इसलिये ये बन्धु हीन होते हैं (दिसोदिसं विपेक्खता) विचारे ये एक दिशा से दूसरी दिशा का ही अवलोकन करते रहते हैं और ( मरणभव्विग्गा ) मृत्यु के भय से व्याकुल बने रहते हैं। इस तरह की स्थिति संपन्न बने हुए इन अदत्तादायी जनों को वे राजपुरुष लाकर (आघायणपडिदुवार संपाविया) वध्यभूमि के द्वार पर उपस्थित कर दिये जाते हैं। क्यों कि (अण्णा) ये अदत्तग्राही जन अभागे होते हैं । (सूलग्गविलग्गभिण्णदेहा ) इन चोरों का शरीर शूल के अग्रभाग पर आरोपित कर देने के कारण छिन्न भिन्न हो जाता है । (ते प तत्थ ) वहां उस वध, बंध, मालण, निर्भर्त्सन, शूलारोपण आदि यातना के स्थान में उनके ( परिकप्पियंगुवंगा ) अंग एवं उपांग अर्थात् नाक कान आदिको कैंची आदि शस्त्रों से काट दिये जाते हैं ॥ लू - १६ ॥ ܕ मधुमो अलावे तेथे अमन्धु होय छे. " बंधुविष्पहीणा " मधुनो होय तो पशु तेभना द्वारा तेमनेो त्याग उशय छे, “ दिसोदिसं विपेक्खता " सेवी પરિસ્થિતિમાં તે બિચારા એક દિશા તરફથી ખીજી દિશા તરફ જોયા કરે છે. અને मरणभयुव्विग्गा મરણના ભયથી વ્યાકુળ બને છે. આ પ્રકારની સ્થિતિમાં મૂકાયેલા તે ચારાને રાજપુરુષા લાવીને घाण पडदुवार संपा विया " वधस्थाननां हरमाने हार पुरे छे. अशु अघण्णा " ते महत्तथाडी- थोर बोडो उमनसीम होय छे. “ सूलग्गविलग्गभिण्णदेहा " ते योशनां શરીર શૂળીના અણીદાર ભાગા પર ચડાવવાને કારણે છિન્ન ભિન્ન થઈ જાય छे. अने" ते य तत्थ ” त्यां ते वध, गंध, भारण, निर्लर्सन, शूझाशपशु આઢિ યાતના દેવાને સ્થાને તેમનાં परिकल्पयंगुवंगा " अगोपांगो, भेटले કે નાક, કાન આદિને કાતર આદ્ઘિ શસ્ત્રો વડે કાપી નાખવામાં આવે છે. ાસૂ.૧૬।। For Private And Personal Use Only 66
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy