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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२० प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'तत्थ वि' तत्रापि 'गोम्मिकपहारदूमणनिभच्छणकडयवयणभेसणगभयाभिभूया' गौल्मिकप्रहारदवननिर्भत्सनकटुकवचन भीपणकभयाभिभूताः तत्र गौल्मिकानां कोटपालानां ये महाराः कशायाघाताः दवनानि-सूर्यतापादौ उपतापनानि निर्भर्त्सनानि = जातिकुलादिनामोच्चारणपूर्वकगालिदानानि कटुकवचनानि च 'रे नीच ! रे दुष्ट !' इत्यादि रूपाणि भीषणकानि भयजनकानि ‘जीवनपर्यन्तं कारागृह एव म्रियस्व ' इत्येवमादिरूपाणि तेषां भयेन अभिभूता ये ते तथा 'अक्वित्तणिवसणा' आक्षिप्तनिवसनाः = कर्षणघर्षणादिमिराकृष्टपरिधानवस्त्रा नग्नीकृता इत्यर्थः, 'मलिगडंडिखंडवसणा' मलिनदण्डिखण्डवसनाः तत्र मलिनं 'डण्डि' सीवितं 'डण्डि' इति सोवितवस्त्रवाचको देशीशब्दः, खण्ड-काटितं च (तत्थ वि) वहां पर भी वे (गोम्मियप्पहार) कोटपालोंके कशा(कोडा)दिद्वारा प्रदत्त आघातों को, (दूमण ) वनों को-सूर्यताप आदि में खड़े करने रूप उपतापनों को, (निन्भच्छण) निर्भर्त्सनो को-जातिकुल आदि के नामोच्चारणपूर्वक गालीगलौज आदिको तथा ( कडुपवयग ) कटुक वचनों को जो कि " अरे नीच ! ओ दुष्ट ! जीवनपर्यन्त तू इस कारागार में ही सड २ कर मर” इत्यादिरूप से ( भेसणग) भयप्रदर्शक होते हैं-सहते रहते हैं ( भयाभिभूया ) उनके भय से अभिभूत होते हैं, तथा ( अक्खित्तणिवसणा) कर्षण घर्षण आदि के करने से इनका परिधान वस्त्र खुल जाता है, अर्थात्-ये नग्न हो जाते हैं-नंगे कर दिये जाते हैं । (मलिणडंडिखंडवसणा) ऐसी स्थिति में इन्हें जो वहां वस्त्र खंड पहिरे को मिलता है वह बिलकुल मलिन होता है। बीच.२ में सिला हुया रहता है । तथा कहीं २ फटा भी रहता है । यहा " डण्डि" शब्द " पवेसिवा” पूरी है छे. " तत्थ वि" त्या पण ते दो। “गोम्मियप्पहार" टपाल वा४२वामा सावता यामुना प्रहा। “दमण" इन-सूर्य ना तापमi GHI राजाने ४२वामा भावतुं ४७न, “ निब्भच्छण" निमसं नाजति १०१ महिना सेप सहित अपाती आणाने, तथा " कडुयवयण" ४२ क्यनाने, म " नीय ! दुष्ट ! तुं माभुवन 24 राडमा सडीने सडीने भर!" “भेसणग” सन ४ा ४२ छ, “ भयाभिभूया" ते २॥ अयथी लयभीत २ छ, तथा “ अक्खित्तणिवसणा" यामे यी ४२વાથી તથા ઘસડવાથી તેમનાં વસ્ત્રો ખસી જાય છે–તેઓ નગ્ન થઈ જાય છે. तेभने नन राय छे. “ मलिणडंडिखंडवसणा" सेवी डासतमा भने त्यो रे વચાખડે પહેરવાને મળ્યાં હોય છે. વચ્ચે વચ્ચે શિગડા વાળા હોય છે, તથા For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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