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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०३ सू० १२ अइत्तादानफलनिरूपणम् नरकनिगोदादिदुःखभागिनः, 'निच्चाउलदुहमनिव्वुइमणा' नित्याकुलदुःखाऽनिवृतिकमनसः नित्यमाकुलं व्याकुलितं दुःखयुक्तम् , अनितिक स्वास्थ्यरहितं मनो येषां ते तथा निरन्तरसंतापसंकुलाः, इहलोके चैव, चात् परलोकेऽपि 'किलिस्संता' क्लिश्यन्तः-क्लेशमनुभवन्तः 'परदव्बहरा' परद्रव्यहराः परधनापहरणशीलाः नरा: मनुष्याः ‘वसणसयं ' व्यसनशतं-दुःखप्रचुरम् 'आवण्णा' आपन्नाःयाप्ताः परियन्तीत्यनेन सम्बन्धः ॥ सू० १२ ॥ एवं ' यथाकृत' इत्यन्तरिमुक्तम् , अथ ' यथाफलंदेह ' इति अदत्तादान फलपतिपादकं चतुर्थद्वारं प्राह- तहेव केइ इत्यादि मूलम्-तहेव केइ परस्सव्वं गवेसमाणा गहिया य हया य बद्धा रुद्धा य तुरियं अइधाडिया पुरवरं समप्पिया चोरग्गाह चारभडचाडुकराण, तेहि य कप्पडप्पहारनिदयाऽऽरक्खिय खरफरुसवयणतज्जणगलत्थल्ल उत्थलणाहि विमणाचारगवसहिं पवेसिया निरयवसहिसरिसं तत्थ वि से युक्त होते हैं । ( दुक्खभागी ) शुभपरिणामों से रहित होने के कारण ये परभव में नरक निगोद आदि के दुःखों को भोगा करते हैं। (णिच्चाउलदुहमणिव्वुइमणा ) इनका मन सदा व्याकुल बना रहता है, इसी से ये निरन्तर मानसिक स्वास्थ्य से रहित होकर संताप से संकुल होते रहते हैं । इस तरह (इहलोगे चेव) इस लोक में तथा 'च' शब्द से परलोक में भी (किलिस्संता) क्लेशों का अनुभव करते हुए ये (पर दव्वहरा) पर द्रव्यापहारी चोर (वसणसयं) अनेक दुःखों को (आवण्णा) प्राप्त होकर (परेंति ) भ्रमण करते हैं अर्थात् अपने समय को दुर्गतियों के भ्रमण करने में ही व्यतीत करते रहते हैं ॥ १२॥ " दुक्खभागी" शुभ परिणामा-मायोथी २ति पाने २ ते ५२सभा न२४ निगोह महिनामा मागच्या छे. "णिच्चाउलदुहमणि व्वुइमणा" तभनु મન સદા વ્યાકુળ રહે છે, તેથી તેઓ નિરંતર માનસિક સ્વાધ્યથી રહિત सनीने सता५थी युत २७ छ. 2 रीते " इहलोगेचेव" मा सोभा तथा 'च' २४थी ५२मा ५५ " किलिस्संता" माने अनुभवता ते “परदव्यहरा' ५२धन २२ ४२न।२। थोर सो " वसणसय ” भने । “आवण्णा" मनुलवता " परे ति” भ्रम ४२ छ, मेटले दुमतीयोमा म કરવામાં જ પિતાને કાળ વ્યતીત કરે છે. સૂ-૧૨ા For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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