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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ तृतीयमध्ययनम् ।। व्याख्यातं द्वितीयमधर्मद्वारं सांप्रतं तृतीयमारभ्यते-अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः । द्वितीयाधर्मद्वारे यादृशनामादिनिर्देशपुरस्सरमली कवचनस्वरूपमुक्तम् । अलीकवचनं च अदत्ताऽऽदायिनो बदन्त्येवेति हेतो; मूत्रक्रमनिर्देशानुसाराच्च मृषावादानन्तरमुचितप्राप्तमदत्तादानं स्वरूपनामादिनिर्देपपूर्वक प्रदर्श्यते, तत्र पूर्वयोरधर्मद्वारयोरिवास्यापि ' यादृक् १, यन्नाम २, यथा च कृतं ३, यत्फलं ददाति ४, ये च कुर्वन्ति ५, इति पञ्चभिरन्तद्वी रैर्निरूपणं चिकीर्षुरादौ क्रमप्राप्त 'यादृश' इति द्वारमाश्रित्य अदत्तादानस्वरूपं निरूप्यते-'जंबू तइयं च' इत्यादि तृतीय आस्रव-(अधर्म ) द्वार प्रारंभद्वितीय आनव-(अधर्म) द्वार कहा गया, अब तृतीय आस्रवद्वार की व्याख्या प्रारंभ होती है । इस अधर्मद्वार का पूर्व अधर्मद्वार के साथ इस प्रकार से संबंध है कि-द्वितीय आस्रव-(अधर्म ) द्वार में (यादशनामादि निर्देश पूर्वक) अलीक ( झूठ)वचनका स्वरूप कहा है सो इस अलीक वचन को जो अदत्त को लेने वाले व्यक्ति होते हैं, वे ही बोलते हैं तथा सूत्रक्रम निर्देश भी ऐसा ही है, इसलिये मृषावाद के अनन्तर उचितरूप से प्राप्त अदत्तादान का स्वरूप नामादि निर्देशपूर्वक इस अध्ययन में कहा जावेगा । जिस प्रकार पूर्व दो आस्रव ( अधर्म ) द्वारों का सूत्रकार ने ( थादृश यन्नाम ) इत्यादि पांच अन्तरों द्वारा निरूपण किया है उसी तरह से वे इस तृतीय आस्रव (अधर्म ) द्वार का भी निरूपण करना चाहते हैं इसलिये वे सर्व प्रथम इसमें क्रम प्राप्त अदत्तादान का ( यादृश ) इस द्वार को लेकर स्वरूप कहते हैं ત્રીજા આસવ-અધર્મ દ્વારને પ્રારંભ બીજા આસ્રવ-( અધર્મ) દ્વારનું કથન પૂરું થયું, હવે ત્રીજા આસવ દ્વારનું વર્ણન શરૂ થાય છે. આ અધર્મકારને આગળનાં અધર્મદ્વાર સાથે २॥ रीते २०५५ 2-uflat &१-( Aम) २मा “ यादृशनोमादि निर्देशपूर्वक " 21सी क्यननुं स्व३५ प्राट ४२वामा माव्यु छ. ५ ते मसी વચને અદત્ત દિધેલું લેનારી વ્યક્તિ જ બોલે છે, તથા સૂવકમ નિર્દેશ પણ એ જ છે, તે કારણે મૃષાવાદનું નિરૂપણ કર્યા પછી યોગ્ય રીતે અદત્તાદાનનું સ્વરૂપ નામાદિ નિર્દેશ પૂર્વક આ અધ્યયનમાં બતાવવામાં આવશે. म २मान में मासव-(A) द्वारीनुं सूत्रारे "यादृश चन्नाम" त्यहि પાંચ અન્તર્કો દ્વારા નિરૂપણ કર્યું છે, એ જ પ્રમાણે તેઓ આ ત્રીજા આત્સવ (અધર્મ) દ્વારનું પણ નિરૂપણ કરવા માગે છે. તેથી તેઓ સૌથી પહેલાં ક્રમ પ્રમાણે For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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