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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ७ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् तथा देववादिनः " प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यः, किं कारणं दैवमलङ्घनीयम् । तस्मान्न शोचामि न विस्मयो में, यदस्मदीयं नहितत्परेषाम् ॥ " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा ‘ नस्थि ’ नास्ति ‘तत्थ ’ तत्र मर्त्यलोके ' किचि ' किञ्चित् ' कथकं ' कृतकं कर्मनिष्पन्नं ' तत्तं तवं वस्तु । तथा 'लक्खणविहाणं 'लक्षणविधानां = पदार्थस्वरूपप्रकाराणां नियतिः = भाग्यमेव ' कारिया' कारिका - कर्त्री, तथा यन कार्यकारणभाव का विच्छेद प्राप्त होता है। अ दैववादियों का स्वरूप कहते हैं-' दवियप्पभावओ वावि भवः' इत्यादि । दैववादियों कि ऐसी मान्यता है - " प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः, किं कारणं दैवमलङ्घनीयम् । तस्मान्न शोचामि न विस्मयो में, यदस्मदीयं नहि तत् परेषाम् ॥१॥" जो कुछ प्राप्त होने योग्य वस्तु है वह हमें भाग्य की कृपा से ही प्राप्त होती है । यह भाग्य अलंघनीय है । अतः ऐसा समझकर कि जो हमारी है वह दूसरों की कभी नहीं हो सकती है कभी भी किसी प्राणी को शोक फिकर और आश्चर्य आदि नहीं करना चाहिये ॥१॥ अतः हे भाइयो ! तुम एक मात्र दैव- भाग्य पर ही भरोसा रखो । ( नत्थि तस्स किंचि कयकं तत्तं ) लोक में कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो कृतक हो परुषार्थ रूप कर्म से प्राप्त की जा सके- ऐसी हो । इसी प्रकार ( लक्खणविहाणं ) पदार्थों का जितना भी कुछ अपना रूप है तथा उनके जितने भी प्रकार - भेद हैं इन सबकी ( कारिया ) कारिका करने हुवे हैववाहीगोनुं स्व३५ उडे छे -" दद्वियप्पभावओवावि भवइ ” त्याहि. દૈવવાદીઓની માન્યતા છે કે- ૨૦ફે " प्राप्तव्यम लभते मनुष्यः, किं कारणं देवमलङ्घनीयम् । तस्मान्न शोचामि न विस्मयो में, यदस्मदीयं नहि तत् परेषाम् " ॥१॥ પ્રાપ્ત થવા લાયક જે કોઇ વસ્તુ હોય છે તે આપણને ભાગ્યની કૃપાથી જ મળે છે. તે ભાગ્ય અલધનીય-અફર છે, જે અમારી ચીજ છે તે બીજાની કદી પણ થઈ શકતી નથી, એવુ સમજીને કદીપણ કોઇ પ્રાણીએ શાક, ચિન્તા આશ્ચર્ય આદિ કરવા જોઇએ નહીં !! તા હું ભાઈ ! તમે એક માત્ર ભાગ્ય ઉપર જ વિશ્વાસ રાખા For Private And Personal Use Only "" लक्खण “नत्थि तस्स किंचि कयकं तत्तं " भगतमां सेवी अर्ध वस्तु नथी में थे. કૃતક હાય-પુરુષાથથી પ્રાપ્ત કરી શકાય તેવી હોય. એ જ રીતે विहाणं " पहार्थोनुं ? पोतानुं ३५ छे तथा तेभना भेटला अार-लेह छे, ते मधानी " कारिया " अरी-४२नारी " नियई આ नियति-लाग्य-न ܕܕ
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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