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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे अयमात्मा अकर्ता-पुण्यपापादोनाम् । वेदकः भोक्ता पुण्यपापकर्मफलस्य प्रतिबिम्बोदयन्यायादिति भावः, तथा-' मुकयस्स' सुकृतस्य-पुण्यस्य 'दुक्कयस्स' दुष्कृतस्य पापस्य च 'सबहा ' सर्वथा' 'सबहिं ' सर्वत्र सर्वस्मिन् काले 'कारणाणि' कारणानि-निमित्तभूतानि 'करणाणि' करणानि-चक्षुरादीनीन्द्रियाणि, नायमात्मा । अलीकताचास्य संसार्यात्मनो मूर्तत्वेन परिणामित्वेन कर्तृत्वोपपत्तेः तथा ' णिच्चो' नित्य इति केचित् , तदपि न युक्तम् , एकान्तनित्यत्वे सुख __ यह कथन भी मिथ्यारूप ही है, क्यों कि इसे सत्य मानने पर जो सकललोक के प्रत्यक्षभूत भेदमूलक धर्म अधर्म आदिका व्यवहार होता है उसके उच्छेद का प्रसंग प्राप्त होता है । इसी तरह जो आत्मा को एकान्तरूप से अकर्ता मानते हैं ऐसे सांख्यो की यह मान्यता है कि (अकारगो वेदगोय) यह आत्मा पुण्यपाप आदिका अकर्ता है, और उनके फल भूत सुख दुःख आदिका (१) प्रतिविम्बोदयन्यायसे भोक्ता है। तथा कोई कहते हैं कि (सुकयस्स दुक्यस्स य सव्वहा सव्वहिं कारणाणि य करणाणि ) पुण्य और पाप के सर्व प्रकार से सर्वकाल में का निमित्तभूतचक्षुरादि इन्द्रियां हैं । आत्मा नहीं है, यह उनकी मान्यता असत्य है, क्यों कि संसारी आत्मा कथंचित् मूर्तिक है और परिणामी है इसलिये कर्तृत्व और भोक्तृत्व बन जाता है ! सर्वथा अमू તે કથન પણ મિથ્થારૂપ જ છે, કારણ કે તેને સત્ય માનવામાં આવે તે સમસ્ત જગતમાં નજરે પડતો મૂળભૂત ભેદવા ધર્મ અધમ આદિને જે વ્ય વહાર થાય છે તેનું ખંડન થવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. એ જ રીતે આત્માને એકાન્તરૂપે અકર્તા માનનાર સાંખ્ય મતવાદીઓની એવી માન્યતા છે है “ अकारगो वेदगोय " 24t मामा जुन्य ५.५ महिना पत्ता नथी, भने तमना ५१३५ सुप हुन पाहिना "प्रतिबिम्बोदय न्यायथी " माता छ. तथा ats us छ ? " सुकयस्स दुक्कयस्स य सबहा सव्वहिं कारणाणि य करणाणि " धुन्य भने पापना सर्व प्रा२ने ४ता सणे मात्मा नहीं ५ ચક્ષ આદિ ઈન્દ્રિય છે. તેમની તે માન્યતા અસત્ય છે, કારણ કે સંસારી આત્મા કેટલાક પ્રમાણમાં મૂર્તિક છે અને પરિણામી છે, તેથી તેમાં કતૃત્વ અને १ प्रतिबिम्बोदय न्याय का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्फटिकमणि के साथ जिस वर्णका संयोग होगा स्फटिक मणि वैसा ही वर्णका दीखने लग जाता है। ૧પ્રતિબિદય ન્યાયનું તાત્પર્ય એ છે કે જેમ સ્ફટિક મણીની સાથે જે રંગને સંગ થશે, એવા જ રંગને સ્ફટિક મણ દેખાશે. For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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