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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ४ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् प्रत्यक्षाभावे व्याप्तिग्रहस्याप्यभावात् महानसादौ सत्येव पर्वतादी वहिरनुमीयते । वधूिमयोः प्रत्यक्षेण साहचर्यग्रहे प्रत्यक्षप्रमाणवादिभिरनुमानस्यानङ्गीकृतत्वाच्च । नाप्यागमग्राह्यस्तस्य परस्परविरुद्धत्वेनाऽपामाण्यात् । नाप्युपमानमत्रपसज्यते, असत्पदाथै केनोपमीयते । इति । एवं च जीवस्याऽसिद्धत्वात् कोऽपि इह-मनुष्यलोके परे वा ' लोए ' लोके देवादिलोके वा '.न जाइ' न यातिन गच्छति, 'नय' न च ' किंचिवि ' किश्चिदपि ' पुनपावं , पुण्यपाप-पुण्यपापरूपं कर्म ‘फुसइ' धर्मता आदि का ग्रहण होना आवश्यकीय होता है इसके विना अनुमान नहीं होता है। जब उस विषय में प्रत्यक्षप्रमाण ही प्रवृत्त नहीं होता है तब साध्य साधन की व्याप्ति का ग्राहक वहां वह कैसे हो सकता है । महानस आदि में साध्य साधन की व्याप्ति पहिले प्रत्यक्ष से ग्रहण कर लेने पर ही तो अनुमाता पर्वत आदि में बह्नि का अनुमान करता है । आगम प्रमाण से भी “ जीव है " यह बात नहीं कही जाति है, कारण आगमों में एकमतता नहीं है । परस्पर विरुद्धार्थ का-एक दूसरे आगम से विरोधी तत्त्व का-ये प्रणयन करते हैं, इसलिये इनमें प्रमाणता ही नहीं है। उपमान प्रमाण की यहां प्रवृत्ति इसलिये नहीं हो सकती है कि जब 'जीव ' पदार्थ ही असत् है तब वह उपमेय कैसे हो सकता है। इस तरह जीव नामक पदार्थ की असिद्धि होने पर ( न जाइ इह परे वा लोए) कोई भी इस मनुष्यलोक में अथवा दूसरे देवादिलोक में नहीं जाता है, और (न य किंचि वि फुसइ पुण्यपावं ) न वह पुण्य एवं पापरूप कर्म को छूता है, अर्थात्-जब जीव नाम का कोई पदार्थ ही સાધનની વ્યાપ્તિનું અને પક્ષમતા આદિનું ગ્રહણ થવું આવશ્યક હૈય છે, તેના વગર અનુમાન થતું નથી. જે તે વિષયમાં પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ જ પ્રવૃત્ત હોતું નથી તે સાધ્ય સાધનની વ્યાપ્તિને ગ્રાહક ત્યાં તે કેવી રીતે થઈ શકે ! મહાનસ આદિમાં સાધ્ય સાધનની વ્યાપ્તિ પહેલાં પ્રત્યક્ષ રીતે ગ્રહણ કરી લીધા પછી તે અનુમાન કરનાર પર્વત આદિમાં અગ્નિનું અનુમાન કરે છે. આગમોનું પ્રમાણ આપીને પણ “જીવે છે” તે વાત કહી શકાય તેમ નથી, કારણ કે આગમાં એક મતતા નથી. પરસ્પરથી વિરુદ્ધ અર્થનું-એક બીજાથી વિરોધી તત્ત્વનું-તેઓ વર્ણન-પ્રતિપાદન કરે છે, તે કારણે તેમનામાં પ્રમાણભૂતતા નથી, अपमान प्रमाणुनी मी प्रवृत्ति ते २0 ४ शती नथी ने “जीव " પદાર્થ જ અસતું હોય તે તે ઉપમેય કેવી રીતે થઈ શકે ! આ રીતે જીવ नामना पानी मसिद्धि यतi " न जाइ इह परे वा लोए" आई ५ मा भनुष्य सभा अथवा मानवाभि नथी, भने “नय किंचि वि फुसइ पुण्णपाव" ते मने पा५ ३५ भनि २५शता नथी, मेटले 3 For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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