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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे 'कलाया' कलादा सुवर्णकाराः 'कारुइज्जा' कारुकीयाः शिल्पिनः 'वंचणपरा' वञ्चनपरा:प्रतारणापराः 'ठग' इतिप्रसिद्धाः 'चारियचाटुयारनगरगोत्तिय परियारगा, चारिकचाटुकारनगर गुप्तिकपरिचारकाः तत्र-चारिकाः=गुप्तचराः, चाटु कारामुखमाङ्गलिकाः, नगरगुप्तिकाः कोपालाः, ' कोतवाल' इति प्रसिद्धाः, परिचारकाः= सेवकाः, विषयभोगतत्पराय, 'दुहवाइम्यकभणबलभणिया ' दुष्टवादि सूचकऋणवलभणिताः, तत्र दुष्टवादिनः असत्पक्षग्राहिणः सूचका-पिशुनाः, ऋणवलभणिताः ऋणे-ऋणग्रहणे बलाः बलवन्तस्तै भणिताः-उक्ताः ' देहि मे ऋण' मित्युत्तमर्णेनोक्ता अघमर्णा इति भावः ‘पुवकालियवयणदच्छा' पूर्वकालिकवचनदक्षाः बक्तुकामस्याभिप्रायमालक्ष्य पूर्वमेव ब्रुवन्ति ये ते पूर्वकालिकवचनदक्षाः, 'साहसिका' सहसा-अविचार्य भाषन्ते ये ते साहसिकाः, 'लहुस्सगा' (पडकारगा ) जो तन्तु वाय-जुलाहे होते हैं ( कलाया ) कलाद-सुवर्णकार -सुनार होते हैं, ( कारुहजा) कारुकीय-शिल्पी-कारीगर होते हैं, (चणपरा ) जो ठग होते हैं, (चारिय ) गुप्तचर होते हैं, ( चाटुयार ) चाटुकार-खुशामदी होते हैं, (नगरगोत्तिय ) नगरगुप्तिक-कोतवाल होते हैं, (परियारग) परिचारक-सेवक तथा विषयभागों में तत्पर होते हैं, (दुहवाई ) जो असत्पक्ष को ग्रहण करने वाले होते हैं, (सूयग) सूचक-चुगल खोरहोते हैं, (अणबलभणिया) मेरा ऋण अदा करो इस प्रकार जिस देनदार से साहूकार कहता है वे ऋग बलभणित कर्जदार व्यक्ति कहने वाले के अभिप्राय को लक्षित करके पहिले से ही बोलने वाले ( पुव्वकालियवयणदच्छा) पूर्वकालिक वचनदक्ष मनुष्य, (साहसिया) विना विचारे बोलने वाले मनुष्य, (लहुस्सगा) अपने घातानुं शुसन यावे छ, " पडकारगा" २ १४४२ जाय छ, “ कलाया" सोनी य छ, “ कारुइज्जा" २ हाय थे, " वंचणपरा" 81 8य छ, "चारिय " गुप्तय२ य छ. “ चाटुयार” या ॥२- मुशामतीयो डाय छे. " नगरगोत्तिय" नगरभिटवाडय छ, “परियारग" परिया२५-सेवर તથા વિષય ભાગના ગુલામ હોય છે, જે અસત્ય પક્ષને ગ્રહણ કરનાર હોય छ," दुद्रुवाई " 2 असत्यपक्षने अड ४२ना२ डाय छ, “सूयग" सूच:युगलीपाराय छ, “अणबलभणिया" 'भा३ ऋण म२५४ ४२।। પ્રમાણે જે દેણદારને શાહુકાર કહે છે તે જાણબલ ભણિત દેણદાર વ્યક્તિ, કહે ना२ना भलिप्रायने सक्षित रीने पडेथी मी ना२ जाय छ, “पुषकालिय वयणदच्छा " पूर्व मापे क्यनी मायेसो मनुष्य, “ साहसिया " विद्यार्या विना मोदना२ मनुष्य, “ लहुस्सगा" पातानी नतने तु२७ भानना२ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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