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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुंदशिनी टीका अ० २ सू० २ अलीकवचननामानि मओ' असम्मतः न्यायज्ञैरनाचरितः, (२६) असच्चसंधत्तणं' असत्यसन्धत्वम् असत्यं-सन्दधाति-सम्मिश्रयति सततं यः सोऽसत्यसन्धस्तस्य भावोऽसत्यसन्धत्वं -भूषाभापि धर्मः, (२७) ' विवक्खो' विपक्षः सत्य प्रतिकूलत्वात् (२८) उवहि यं ' औषधिक-मायामयम्=कपटगृहमित्यर्थः, (२९) उवहि असुद्धं ' उपध्यशुद्धम् =उपधिः सावद्यकर्म तेनाशुद्धम् , (३०) 'अवलोकोति' अपलोप इति-कुर्वाणोऽपि 'नाहं करोमि किश्चि 'दित्यादिभिर्वस्तु प्रच्छादनम् — विइयस्स' द्वितीयस्याधर्मद्वारस्य 'इमाणि' इमानि-पूर्वोक्तानि 'एवमाइयाणि ' एवमादिकानि-अलीकादीनि ‘सावज्जस्स ' सावधस्य पापसहितस्य 'अलियस्स' अलीकस्य मृपावान्यायज्ञ पुरुषों द्वारा यह असंमत है-वे पुरुष इसका कभी भी सेवन नहीं करते हैं इसलिये यह असंमत है २५ । यह मृषाभाषियों का धर्म है इसलिये इसका नाम असत्यसंघात है २६ । सत्यभाषण का यह विपक्षी है इसलिये इसका नाम विपक्ष है। कपटों का यह घर है इसलिये इसका नाम औपधिक है २८ । सावद्यकर्मों से यह सतत अप-- वित्र बना रहता है इसलिये इसका नाम उपध्यशुद्ध है २९ । उपधि शब्द का अर्थ सावद्यकर्म है। कार्य करता हुआ भी व्यक्ति इसके प्रभाव से प्रभावित होकर कहदिया करता है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। इस तरह इसके द्वारा वस्तु का प्रच्छादन होता है अतः इसका नाम अलोप है ३० । (बिइयम्स ) इस तरह द्वितीय अधर्मद्वार के (इमाणि ) ये पूर्वोक्त अलीक आदि ( तीसं नामधेजाणि ) गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं । तथा ( एवमाइयाणि ) इनसे अतिरिक्त और भी इसी તેને માન્ય કરતા નથી-તેઓ તેનું કદી પણ સેવન કરતાં નથી, તેનું નામ '' असंमत" (२६) ते असत्य वयन भृषावाहीमान। म छ, तेथी तेनु नाम " असत्यसंघात" छे (२७) सत्य भाषा ते विपक्षी-वि३६नु छ, तेथी तेनु नाम “ विपक्ष " छे. (२८) ४५टोनु ते घाम छ, तेथी तेनु नाम" औपधिक " छ. (२८) सावध थी ते सतत अपवित्र २ छ, तेथी तेनु नाम, उप ध्यशुद्ध" छे. 'उपधि' शहना म सावध छ, (30) आय ४२ती व्यક્તિ પણ તેના પ્રભાવની અસર નીચે આવી જઈને કહી દે છે કે “હું કઈ કરતું નથી.” આ રીતે તેના દ્વારા વસ્તુનું પ્રછાદન થાય છે, તેથી તેનું नाम "अपलोप" छ. “ बिइयस्स” मा रीते oilon अयमद्वा२ना " इमाणि" प्रति अटी माहि“ तीसं नाम धेज्जाणि " शुशानुसार त्रीस नाम छे. तथा " एवमाइयाणि " ते उपरान्त blot ५ ते ४ ४२ना “ सावजस्स" पा५ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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