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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ०१ सू० २७ पापिनो वेदनाकालनिरूपणम् १०५ टीका-एवम् उक्तरीत्या ते पापकारिणः, 'पुव्वकम्मकयसंचओववतत्ता' पूर्वकर्मकृतसञ्चयोपतप्ताः=पूर्वकृतानां कर्मणां सञ्चयेन समुपार्जनेन उपतप्ताःसन्तापं प्राप्ताः । निरयग्गिमहग्गिसंपलित्ता ' नरकाग्निमहाग्निसंप्रदीप्ताः= नरकएवाग्निः सन्तापकारकत्वाद् नरकाग्निः, स महाग्निरिव अत्युत्कटत्वात् तेन संप्रदीप्ताः संतप्ताः · पावकम्मकारी ' पापकर्मकारिणः, 'गाढदुक्खमहब्भयं' गाढदुःखमहाभयां गाढेन-निविड़ेन दुःखेन महाभयां-विशालभययुक्तां' कक्कस' कर्कशां कठोराम् ' असाय' असाताम्-असातनामवेदनीयकर्मोद्भवां, 'सारीरं' शारीरी 'मानसं' मानसीं च दुविहं-द्विविधां 'तिव्वं ' तीव्राम्-अतिशयां 'वेयणं' वेदनां पीडां वेदयन्ति-अनुभवन्ति । कियकालम् ? इत्याह-'बहूणि' बहूनि 'पलिभोवमसागरोवमाणि 'पल्योपमसागरोपमाणि=पल्योपमाणां कालं, अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि पापी जीन नरकों में कैसी २ वेदना को कितने कालतक भोगते हैं-' एवं ते' इत्यादि. टीकार्थ (एवं) इस प्रकार (ते पावकम्मकारी) वे पापकारी जीव (पुव्व -कम्मकयसंचओवतत्ता) पूर्वकर्म के लिये हुए संचय से अत्यंत संतप्त होकर तथा संतापकारी होने से महाग्नि जैसी नरकरूप अग्नि से संप्रदीप्त होकर (पावयारी ) पापकारी जीव ( गाढ दुक्खमहन्भयं ) निविड़दुःख से अतिश दुखवाली ऐसी (ककस) कठोरातिकठोर (सरीरं ) शारिरीक, एवं (माणसं) मानसिक, (दुविहं ) दोनों प्रकार की (असायं वेयणं) असाता वेदनीय कर्म के उदय से जनित (तिव्वं वेयणं) तीव्र वेदना को वेदेति) भोगते हैं ऐसी वेदना को वे कितने काल तक भोगते हैं वह कहते हैं (बहूणि पलिओवमसागरोवमाणि) इस तरह હવે સૂત્રકાર એ પ્રગટ કરે છે કે પાપી જીવ નરકમાં કેવી કેવી વેદનાને ४८८॥ समय सुधी लागवे छ “ एवं ते" त्यादि. टी -“एवं" मा प्रमाणे "ते पावकम्मकारी" ते ५.५४० "पुव्वकम्मकयसंचओवतत्ता" पूर्व ४२८i नि! संययथा अतिशय सतत थन तथा सत।५४ारी पाथी भड। AAथा सही थने, “ पावयारी” पापी 04 "गाढदुक्खमहब्भयं" सय ४२ हुमाथी भतिशय हुशवाजी, " ककसं" भतिशय ४२, “ सारीरं " शरी२४ अने “ माणसं " भानसि " दुविहे" मने प्रा२नी " असायं वेयणं " असाता वहनीय भना यथा उत्पन्न थयेस “तिव्वं वेयणं" तीन वेहनाने " वेदेति" सागवे. वी. वहनान तमासा समय सुधी लागवे छे. ते सूत्रा२ मतावे छ “बहूणि पलिओवमसागरोवमाणि" એ રીતે અનેક પ્રકારની વેદનાને તેઓ ઘણા જ પલ્યોપમ તથા સાગરેપમ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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