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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७८ प्रश्न याकरणसूत्रे एवं ' कुद्धा लुद्रा मुद्धा' क्रुद्धाः लुब्धाः मुग्धाः - क्रोध लोभमोहवन्तः घ्नन्ति । 'अत्था' अर्थाः =धनार्थिनः, 'धम्मा' धर्माधर्मार्थिनः - जाति कुलधर्माभिमानवन्तः 'कामा' कामाः = कामार्थिनो घ्नन्ति । एवं 'अत्था धम्मा कामा' अर्थ धर्मकामार्थिनो घ्नन्ति ॥०२० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करते हैं, (लुद्धा हणंति ) कितनेक ऐसे हैं जो केवल लोभ के वशवर्ती होकर जीवों की हिंसा करते हैं, और ( मुद्धा हणंति ) कितनेक ऐसे भी हैं जो केवल मोहाधीन वृत्ति होकर जीवों की हिंसा करते हैं । ( कुद्धा लुद्धा मुद्धा हति) कितनेक ऐसे भी हैं जो क्रोध, लोभ, मोह इन तीनों के वशवर्ती बनकर जीवों की हिंसा करते हैं । ( अत्था हर्णति ) कितने क ऐसे भी जीव हैं जो केवल धन के अर्थी होकर ही जीवों की हिंसा करते हैं, (धम्मा हति) कितनेक ऐसे भी हैं जो धर्मार्थी जाति धर्म और कुलधर्म के अभिमानी होकर जीवों की हिंसा करते हैं । (कामा हति कितनेक ऐसे भी हैं जो कामार्थी इन्द्रियों के विषयों को भोगने की लालसा के वशवर्ती होकर जीवों की हिंसा करते हैं और (अस्था धम्मा कामा हति ) कितनेक ऐसे भी हैं जो अर्थ, धर्म और काम, इन तीनों के वशवर्ती होकर जीवों को हिंसा करते हैं। भावार्थ — इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने हिंसा करने की विचारधारा वाले जीवों को कहा है, वे कहते है कि कितनेक जीव ऐसे भी हुआ ," ओोधभां भावीने धोनी डिसा रे छे. "लुद्धा हणंति " ऐटसाङ ठेवण बोलने वश थाने लवोनी हिंसा उरे छे, " मुद्धा हणंति ” डेटलाई सेवा पशु बोअ હાય છે કે જે કેવળ મેાહાધીન થઈને જીવોની હિંસા કરે છે. ૮ कुद्धा लुद्धा मुद्धा हणंति " उटसा बोओ सेवा पण छे ! रेमो डोध, बोल, भोह मे ત્રણને વશ થઈને જીવાની હિંસા કરે છે. 'अत्था हणंति ” डेंटलाई सेवा पशु वो छेडे ने धनने भाटे ४ भवानी हिंसा अरे छे. " धम्मा हणंति " डेटલાક એવા પણ છવા છે કે જે ધર્માર્થ-જાતિધર્મ અને કુળધમ ના અભિમાનને કારણે જીવાની હિંસા કરે છે. कामा हणंति" डेंटला मेवा पशु वो होय છે કે જે કામાર્થે ઇન્દ્રિયાની વિષય લાલસાને વશ થઇને જીવાની હિંસા કરે छे, भने “ अत्था धम्माकामा हति ” डेंटला सेवा पशु भवो डाय छे से જે અર્થ, ધર્મ અને કામ, એ ત્રણને વશ થઈને જીવાની હિંસા કરે છે. ભાવાર્થ—આ સૂત્રમાં સૂત્રકારે હિંસા કરવાની વિચારધારાવાળા જીવે ખતાવ્યા છે. તેઓ કહે છે કે કેટલાક જીવા એવા પણ હોય છે કે જે સ્વાધીન " For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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