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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका ० १ सू० १९ कान् जीवान् किरण्यात कानति दीनान् 'सत्ते' सच्चान् = पृथिव्यादीन 'उवहणंति' उपघ्नन्ति = मारयन्ति, कस्मादि'स्याह - 'कोहा' क्रोधात्, 'माणा' मानात् 'माया' मायायाः = कपटात् 'कोभा ' लोभात् 'हासा' हास्यात् 'रह' रते = रागात् 'अरइ' अरते द्वेषान् 'सोय' शोकात् 'उपघ्नन्ति' इति सम्बन्धः । किमर्थम् ? इत्याह- 'वेयत्थजीयधम्मत्थकामहेऊ' वेदार्थजीवधर्मार्थकामहेतोः अत्र हेतुशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धः । ' वेयत्थ ' वेदोक्तानुष्ठानं, 'जीयः' जीवः =जीवनं, ' धम्म ' धर्मः कुलजात्यादिलक्षणः, ‘अत्थ' अर्थः=घनं, 'काम' कामाः = शब्दादयः इत्येतेषां हेतोः कारणात् 'सबसा' स्ववशाः = स्वाधीनाः सन्तः, ' अवसा' अवशाः = पराधीनाः--पर निर्देशवर्तिनः, 'अट्टाए' अर्थाय = प्रयोजनाय 'अणट्टाए' अनर्थाय - अप्रयोजनाय - निरर्थकमित्यर्थः रूप चक्षुओं पर अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है । और (दारुणमई) जिनके परिणाम अत्यंत क्रूर बन चुके हैं ऐसे प्राणी ( सत्तपरिवज्जिए ) बलहीन दीन ( सत्ते) पृथिव्यादिक जीवों की ( उवहणंति ) विराधना करते हैं वह विराधना किस कारण से करते है सो कहते है (कोहा, माणा, माया, लोभा, हासा, रति, अरति, सोय) क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति शोक से करते हैं । अर्थात् इन परिणामो से युक्त होकर हिंसक पृथिवी आदिक जीवों की हिंसा करते हैं । किसलिये करते है ? (वेयस्थ जीयधम्मत्थकामहेऊ) वेदार्थ, जीवन, धर्मा काम के लिये करते हैं, यहां हेतु शब्द का संबंध प्रत्येक के साथ में कर लेना चाहिये - वेदार्थ वेदोक्त अनुष्ठान के लिये, जीवन के लिये, धर्म के लिये, अर्थ-धन के लिये, काम-शब्दादिक पांचों इन्द्रियों के विषयों के लिये, इन्हीं सब कारण कलापों को लेकर (सबसो) स्वाधीन अथवा (अवसा) पराधीन होकर (अट्टाए) प्रयोजन के लिये अथवा (अणट्टाए य) - " ५२ अज्ञानन! यह पडेल छे, भने “ दारुणमई " लेमनी वृत्तियो अत्यंत रे जनी गई छे सेवा वो “ सत्तपरिवज्जिए" जसद्दीन, हीन “सत्ते" पृथ्वीजय श्यादि कवोनी “ उवहणंति ” त्या उरे छे. ते हिंसा यां यां अरे छे ते सूत्रBIR SÊ D—“ HÌET, AIOIT, #191, àtur, gien, efa, sfa, dia” ĝu, HIM, भाया, बोल, हास्य, रति, अरति शोड़ आदि वृत्तिमोथी युक्त वर्धने हिंस भव। पृथिवीय याहि लवोनी डिसा रे छे. शा भाटे तेम हरे छे ? “ वेयत्थ जीय धम्मत्थकामहेऊ" वेहार्थ, भवन, धर्मार्थ अमने माटे ते करे छे वेहार्थ - वेदोस्त धर्म डियागोने भाटे, भुवनने माटे, धर्मने भाटे, अर्थ-धनने भाटे, शुभ-यांचे इन्द्रियोना विषयने भाटे, मे मधां अश्शु समूहोंने सीधे “सवत्रा " સ્વાધીન અથવા " पराधीन इशाभां होवाथी " अट्ठाए ” પ્રચેજિનને (6 अवसा For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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