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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका अ.१ सू० १३ चतुरिन्द्रियादिनां हिंसाप्रयोजननिरूपणम् ५७ टीका--' अण्णेहि य ' अन्यैश्च ‘एमाइएहि ' एवमादिकैः पूर्वोक्तसदृशैः 'बहुहि' बहुभिः नानाविधैः ‘ कारणसएहिं ' कारणशतैः 'अबुहा' अबुधाः अज्ञा निनो जनाः इह-अस्मिन् जीवलोके तसे पाणे' सान् प्राणान् द्वीन्द्रियादीन् 'हिंसति' हिंसन्ति=घ्नन्ति । तथा-'इमेय' इमांश्च=अग्रे वक्ष्यमाणान् ‘एगिदिए' एकेन्द्रियान् पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिलक्षणान 'बहवे' बहून् अनेकान् ‘वराए' वराकान् दीनान् , तथा-'तयस्सिए चेव' तदाश्रितान् चैव-पृथिव्या केन्द्रियाश्रयस्थितानपि 'अण्णे' अन्यान् 'तणुसरीरे' तनुशरीरान्सू क्ष्मशरीरान् 'तसे य' त्रसांश्च 'समारंभति' समारभन्ते-उपमर्दयन्ति । कीदृशान तान् ? इत्याह-'अत्ताणे' अत्राणान्=त्राणरहितान् रक्षकाभावात् , 'असरणे' अशरणान् शरणदातुरभावात् , फिर भी कहते हैं-' अण्णेहि य ' इत्यादि । टीकार्थ-(अण्णेहि य एवमाइएहिं बहुहि कारणसएहिं अबुहाइह हिंसंति पाणे ) इत्यादि और भी नानाविध इसी प्रकार के सैकड़ों कारणों से अज्ञानी जीव इस लोक में द्वीन्द्रियादिक ब्रस जीवों की हिंसा करते हैं। तथा (इमेय) वक्ष्यमाण इन (बहवे) अनेक प्रकार के (वराए) दीन (एगिदिए) पृथिवीकाय, अपूकाय तेजाकाय, वायुकाय, वनस्पति काय रूप एकेन्द्रिय जीवों को और (तदस्सिए चेव ) इनके आभित रहे हुए (अण्णे ) दूसरे पूर्वोक्त प्रस जीवों से अतिरिक्त (तणुसरीरे ) छोटे शरीर वाले (तसे य) त्रस जीवों की (समारंभंति ) हिंसा करते हैं । इनकी हिंसा करते हुए जो इन अज्ञानी प्राणियों को संकोच नहीं होता है उसाक कारण यह है कि ये (अत्ताणे) इन एकेन्द्रियादिक जीवों का कोई रक्षक नहीं है इसलिये रक्षक के अभाव से ये सब त्राण रहित है । ( असरणे ) ६७ ५५५ सूत्र४।२ ४३ छ-" अण्णेहिय" त्या. "अण्णेहिंय एवमाइएहिं बहुहिं कारणसएहिं अबुहा इह हिंसंति तसे पाणे" ઈત્યાદિ બીજાં પણ એવા જ પ્રકારનાં સેંકડો વિવિધ કારણોથી અજ્ઞાની જીવ मासभन्द्रिया िस वानी डिसा ४३ छ. तथा “ इमेय " मा प्रभारी ते “ बहवे " मने प्रा२न। “वराए” मिया२" एगिदिए” पृथिवीय, अ५४ाय, ते:य, वायुय, वनस्पतिय३५ मेन्द्रिय योनी भने “तदस्सिएचेव" तमना माश्रये २४सा "अण्णे" on पूरित सा उपसतना " तणुसरीरे" नान शरी२वा! " तसेय" सवानी “ समारंभंति" हिसा કરે છે. તેમની હત્યા કરતાં તે અજ્ઞાની અને સંકેચ થતું નથી કારણ કે " अत्ताणे" ते मेन्द्रिया6ि3 वार्नु २६४ । नथी. तेथी २२४ने मला ते या नाडीन-(निराधा२) छ. " असरणे" ते पृथिव्या ७ मा १४ प्र-८ . For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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