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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुदर्शिनी टीका अ० १ सू०८ उर-परिसर्पप्रकारनिरूपणम् साम्मतमुर परिसर्पमकारानाह–'अयगर' इत्यादि। मूलम्-अयगर-गोणस-वराहि-माउलि-काकोदर-दब्भ पुप्फा-आसालिय-महोरगा उरग विहाणा कए य एवमाई।सू०८॥ टीका-अजगर-गोणश वराहि मुकुलि-काकोदर-दर्भपुष्प-आशालिक महोरगोरगविधाना कृताश्च एवमादीन् । अजगराः प्रसिद्धाः, गोणशाः कणरहितद्विमुखसर्पविशेषाः 'वराहयः' दृष्टिविषसाः येषां दृष्ट्या विषावेशो भवति । मुकुलिना ईषत्फणकारकाः, काकोदराः सामान्यसर्पाः, दर्भपुष्पा सामान्यफणनाम है। (सहूल) शादल, (सीह ) सिंह एवं (चिल्लल ) चित्रक ये सब मांसभक्षी जंगली जानवर हैं और स्थलचर हैं । सू.७॥ अब सूत्रकार उरःपरिसर्पके भेदों को प्रकट करते हैं-'अयगर गोणस' इत्यादि। टीकार्थ-(अयगर) अजगर यह बहुत अधिक मोटा सर्प होता है, धीरे २सरकता है, जिस प्रकार सामान्य सर्प आहट पाते ही बहुत शीघ्र भग जाता है वैसे यह नहीं भग सकता है । (गोणस) गोणश यह भी एक प्रकार का सर्प ही होता है, परन्तु इसके फणा नहीं होती है, व्यवहार में लोग ऐसा कहते हैं कि इसके दो मुख होते हैं. इसका दूसरा नाम दुमुही भी होता है। (वराही) वराहि-यह वह सर्प है कि जिसकी दृष्टि में विष रहता है, जिसे यह देख लेता है उसके विष का आवेश हो जाता है, इसका दूसरा नाम दृष्टिविष सर्प भी है। ( माउलि ) मुकुलीयह वह सर्प है जो अपने फण को थोड़ा ही विस्तारता है, ज्यादा नहीं, भल्ल" तरक्ष, ५२७ मा तेशछानi नाम छ. “सद्दल" , "सीह" सिंड भने “चिल्लल' चित्र में सजा मांसमक्षा नपरे। छ, भने २५२ छ. ॥१.७॥ वे सूत्रा२ " उरःपरिसर्प। पेटे याराना। सोना लेह मतावले" अयगर-गोणस" त्यादि. टी --" अयगर" 201२-ते २१ पधारे भाटी सा५ छ, ते धाम ધીમે સરકે છે. જે રીતે સામાન્ય સાપ સહેજ પણ આવાજ થતાં તરતજ भाभी लय छे तमतमा मासी ता नथी. "गोणस" गोश-ते ५ मे પ્રકારને સાપ જ હોય છે, પણ તેને ફેણ હોતી નથી. વ્યવહારમાં લેકે એવું ४ छ तेने में भुग डाय छ, तेनुं मी नाम 'डमुडी' ५५ छ. “वराहि" વરાહિતે એ સર્પ છે કે જેની દષ્ટિમાં જ વિષ રહે છે, જેને તે જુવે છે तेन तेनु २ 43 छ, तेनुं मlag नाम दृष्टिविष स५ ५५ छ. "माउली" भुती તે એવી જાતને સર્પ છે કે છે પિતાની ફેણને થોડા પ્રમાણમાં જ ફેલાવે છે, For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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