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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ १२ : संधि, समास एवं अन्य प्रयोग प्राकृत में संधि और समास की व्यवस्था प्रायः वैकल्पिक है, नित्य नहीं । बोलचाल की भाषा होने से समास-शैली के प्रयोग की प्रवृत्ति कम है; किन्तु साहित्य में जिस प्राकृत का प्रयोग हुआ है उसमें संधि, समास, तद्धित, विशेषण आदि अनेक प्रकार के पदों और शब्दों का प्रयोग हुआ है । इन प्रयोगों की जानकारी यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत है । संधि- प्रकरण दो शब्दों के स्वर अथवा व्यंजनों का एक साथ मिल जाना अथवा एक दूसरे में लीन हो जाना संधि कहलाता है। हेमचन्द्राचार्य ने प्राकृत में संधि-नियमों का विधान किया है । स्वरसंधि, व्यंजन संधि, प्रकृतिभाव, अव्ययसंधि आदि प्रकार से प्राकृत में संधि - कर्म होता है । स्वर सन्धि आ - जीव + अजीव जीवाजीव; विसम + आयव = 1 ई - मुणि + ईसर मुणीसर; रमणी + ईस – रयणीस; अ - गअ + इंदो – गइंदो; = उ — रयण + उज्जलं – रयणुज्जलं; ऊ— बहु + उपमा = - बहूपमा ; ओ - गूढ + उअरं = गुढोअरं । प्रकृतिभाव प्राकृत शब्दों के स्वरों में कहीं-कहीं संधि न होकर यथास्थिति रह जाती है; जैसे जइ + एवं = जइएवं ; अहो + अच्छरिअं = अहोअच्छरिअं ; =विसमायव; For Private and Personal Use Only प्राकृत सीखें: ६१
SR No.020567
Book TitlePrakrit Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuman Jain
PublisherHirabhaiya Prakashan
Publication Year1979
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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