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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ १: प्राकृत भाषा और साहित्य प्राकृत की प्राचीनता प्राचीन भारतीय आर्यभाषाकाल में जो भाषाएँ प्रचलित थीं उनके रूप ऋग्वेद की ऋचाओं में उपलब्ध होते हैं; अतः वैदिक भाषा ही प्राचीन भारतीय आर्यभाषा है । इसके अध्ययन से प्राकृत के उत्स को समझने में मदद मिलती है । वैदिक युग की भाषा में तत्कालीन प्रदेश-विशेषों की लोकभाषा के भी कुछ रूप प्राप्त होते हैं । इन देश्य भाषाओं को विद्वानों ने तीन भागों में विभक्त किया है--उदीच्य, मध्यदेशीय तथा प्राच्या या पूर्वीय विभाषा । इनका तत्कालीन साहित्यिक भाषा पर प्रभाव भी देखने को मिलता है । वेदों की भाषा, जिसे 'छान्दस्' कहा गया है, इन्हीं विभाषाओं से विकसित मानी गयी है। इनमें से प्राच्या विभाषा उन लोगों द्वारा प्रयुक्त होती थी, जो वैदिक संस्कृति से भिन्न विचार वाले थे । इन्हें 'व्रात्य' आदि कहा गया है। इन्हीं की भाषा को आगे चल कर बुद्ध और महावीर ने अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। उनके ग्रन्थों (उपदेशों) की भाषा आगे चलकर क्रमशः पालि और प्राकृत के नाम से प्रसिद्ध हुई। इधर वैदिक भाषा से संस्कारित होकर संस्कृत भाषा अस्तित्व में आयी ; अतःविकास की दृष्टि से संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाएँ बहिनें हैं तथा उतनी ही प्राचीन हैं, जितनी मानव-संस्कृति । क्रमशः इन भाषाओं का साहित्य धार्मिक एवं विधात्मक दृष्टि से भिन्न होता गया; तदनुसार इनके स्वरूप में भी स्पष्ट भेद हो गये। संस्कृत नियमबद्ध हो जाने से एक ही नाम से व्यवहृत होती रही तथा प्राकृत अनेक रूपों में परिवर्तित होने से महाराष्ट्री, मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची एवं अपभ्रंश आदि कई नाम धारण करती रही । प्राकृत सीख : ५ For Private and Personal Use Only
SR No.020567
Book TitlePrakrit Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuman Jain
PublisherHirabhaiya Prakashan
Publication Year1979
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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