SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ १० : विधि-आज्ञार्थ एवं क्रियातिपत्ति ___ अमुक क्रिया होनी चाहिये या नहीं, जब ऐसा कोई भाव प्रकट करना हो तो भाषा में विधिलिङ का प्रयोग होता है। प्रायः आचारव्यवहार आदि के संबन्ध में सीख-सिखावन के उद्देश्य से विधि का व्यवहार होता है। वस्तुत: विधि का कार्य सत्कार्य में प्रवृत्ति और असत्कार्य से निवृत्ति करना है। इच्छा-सूचन, योग्यता, आमंत्रण, संभावना, प्रार्थना आदि का बोध कराने के लिए विधि एवं आज्ञार्थक क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है। प्राकृत में विधि और आज्ञा के धातुरूप एक-जैसे होते हैं। इसके कुछ उदाहरण-वाक्य इस प्रकार हैं इच्छामि सो भुजउ (मैं चाहता हूँ वह भोजन करे); वयं पालउ (व्रत का पालन करो); पत्थणा मम आगमं पढामु (मेरी प्रार्थना है कि मैं आगम पढूं); भवं पंडिओ वयं रक्खउ (आप पंडित हैं, व्रत की रक्षा करें); ते जणा अप्पाणं झान्तु (वे लोग आत्मा का ध्यान करें)। प्र.पु. म.पु. 3 विधि एवं आज्ञार्थक प्रत्यय एकवचन बहुवचन उ(तु) हि, सु इज्जसु, इज्जहि, इज्जे प्राकृत सीखें : ५० For Private and Personal Use Only
SR No.020567
Book TitlePrakrit Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuman Jain
PublisherHirabhaiya Prakashan
Publication Year1979
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy