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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (गुफा), धआ (त्वचा, चमड़ी), चवला (बिजली), जरा (बुढ़ापा), माया (स्त्री), जीहा (जिव्हा, जीभ), णावा (नौका), दुहिआ (लड़की), पसंसा (प्रशंसा), सिक्खा (शिक्षा), मइर (मदिरा), मुसा (मृषा, झूठ), जुवइ (युवति), सन्ति (शान्ति), इत्थी (स्त्री), सही (सखी), धेणु (गाय, धेनु), बिज्जु (बिजली), निंदा (निन्दा), पीइ (प्रीति), बोहि (बोधि), चिंता (चिन्ता, फिक्र), चमू (सेना), सरजू (सरयू), वक्खा (व्याख्या), लया (लता), रेहा (रेखा), कित्ति (कीर्ति), दिट्ठि (दृष्टि) वसुहा (पृथ्वी), गइ (गति), गोरी (पार्वती), जाइ (जाति)। धातु-कोश शायदि (ध्यान करता है), देति (देता है), छिन्नति (काटता है), णिम्मइ (बनाता है), विज्जोअइ (चमकता है), थुणइ (स्तुति करता है), पुणेइ (पवित्र करता है), हणइ (मारता है), रुच्चइ (पसन्द करता है), वट्टइ (वर्तमान है), आयइ (आता है), णासेदी (नाश करता है), अभिगच्छति (प्राप्त करता है), सज्जइ (सजाता है), तरइ (पार करता है), गिण्हइ (ग्रहण करता है), वड्ढइ (बढ़ता है), चितइ (चिन्ता करता है), रूसइ (गुस्सा करता है), लालइ (पालन करता है), लग्गइ (लगता है)। वाक्य-प्रयोग इच्छा आगाससमा अणंतिया होइ--इच्छा आकाश के समान अन्तहीन होती है। अहिंसा सव्वेसि क्तगुणाणं सारो अत्थि--अहिंसा सारे व्रत-गुणों का सार है । सीया मालं धारइ--सीता माला धारण करती है। लदाहिं घरस्स सोहा हवइ-लताओं से घर की शोभा होती है । मिट्टिआसु अण्णं उप्पणं हवइ-मिट्टी में अनाज उत्पन्न होता है। माया सहस्साण सच्चाण णासेदि-माया हजार सत्यों का नाश करती है। परणिंदा दोहग्गकरी होई--परनिन्दा दुर्भाग्यकारी होती है। तस्स मइ उत्तमा अस्थि--उसकी मति अच्छी है । मुत्तीए सव्वे पयत्तं कुणन्ति---मुक्ति के लिए सभी प्रयत्न करते हैं । लच्छी चवला हवाइ--लक्ष्मी चंचला होती है । अम्हे धेणूए दुद्धं पिवमो--हम लोग गाय का दूध पीते हैं । तीए बहुत्तो बहुसुखं अत्थि-- उसको बहू से बहुत सुख है । विणयहीया विज्जा फलं देंति--विनय से पढ़ी प्राकृत सीखें : ३३ For Private and Personal Use Only
SR No.020567
Book TitlePrakrit Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuman Jain
PublisherHirabhaiya Prakashan
Publication Year1979
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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