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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छदे; भवति >भोदि, होदि; इदानीम्>दाणि; पठित्वा>पढिया, पढिदूण आदि रूप शौरसेनी के विशिष्ट प्रयोग हैं। महाराष्ट्री सामान्य प्राकृत का अपर नाम महाराष्ट्री प्राकृत है, ऐसी धारणा कई विद्वानों की है; किन्तु इसका यह नाम उत्पत्ति-स्थल के कारण ही अधिक प्रचलित हुआ है। महाराष्ट्र प्रदेश में जो प्राचीन प्राकृत प्रचलित थी, उसी के बाद काव्य और नाटकों की महाराष्ट्री प्राकृत का जन्म हुआ है । इस प्राकृत में संस्कृत के वर्णों का अधिकतम लोप होने की प्रवृत्ति पायी जाती है। इस कारण महाराष्ट्री प्राकृत काव्य में सबसे अधिक प्रयुक्त हुई है। अत: इसे साहित्यिक प्राकृत भी कहा जा सकता है। जैन काव्य-ग्रन्थों और नाटक आदि काव्य-ग्रन्थों को महाराष्ट्री प्राकृत में कुछ भिन्नता है; अतः कुछ विद्वान् इसके महाराष्ट्री और जैन महाराष्ट्री, ऐसे दो भेद भी मानते हैं। मागधी __ अन्य प्राकृतों की तरह मागधी में स्वतन्त्र रचनाएँ नहीं पायी जातीं। केवल संस्कृत-नाटकों और शिलालेखों में इसके प्रयोग देखने में आते हैं। अतः प्रतीत होता है कि मागधो कोई निश्चित भाषा नहीं थी, अपितु उन कई बोलियों का उसमें सम्मिश्रण था, जिनमें ज के स्थान पर य, र> ल, सश तथा अकारान्त' शब्दों में ए का प्रयोग होता था। मागधी का निश्चित प्रदेश तय करना कठिन है; किन्तु पभी विद्वान् इसे मगध देश की ही भाषा मानते हैं, जो अपने समय में राजभाषा भी थी । इसकी उत्पत्ति वैदिक युग की किसी कथ्य भाषा मे मानी जाती है, यद्यपि इसकी प्रकृति शौरसेनी को माना गया है । शकारी, चांडाली और शाबरी जैसी लोक-भाषाएँ मागधी की ही प्रशाखाएँ हैं । पेशाची पैशाची का समय ईसा की दूसरी से पांचवीं शताब्दी तक माना गया है। इसके पूर्व की पैशाची के कोई उदाहरण साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं । प्राकृत सीखें : ११ For Private and Personal Use Only
SR No.020567
Book TitlePrakrit Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuman Jain
PublisherHirabhaiya Prakashan
Publication Year1979
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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