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________________ १४१ शुन सत्य एहवा धर्मरूप र नली परीक्षा जे जीव नथी जा ननी। ता ॥ सुह सच्च धम्मरयणे। सु परिवं जे नयाणंतिपणा श्री जिनधर्म तेज जीवोने। अपुर्व नाव कल्पवृक्ष ॥ जिणधम्मो जीवाणं। अप्पुव्वो कप्प पायव्वो॥ स्वर्ग वा देवलोक अपवर्ग वा फलनो दायक वा दानेस्वरी ए | मोक्षसुखनां। ॥१०॥ __ सग्गा पवग्ग सुकाणं। फलाणं दायगो इमो॥१०॥ धर्मले ते बंधव समान तथा धर्मले ते नत्कष्टो गुरुले ॥ नला मीत्र समान। धम्मो बंधू सुमित्तोत्र। धम्मोन परमो गुरू ॥ ||जे जीव मोक्षमारगे प्रवर्त्या धर्म ले ते नत्कष्टो वा उत्तम र तेहने। थवाहन समान । मुक मग्गे पयहाणं। धम्मो परम संदणो ॥१०॥ चारगती भ्रमण अनंत दुःख बलतो नवरूप अटवीनो अग्नि रूप अग्निई। महा जयंकर बे॥ ___ चन्गइ एंत दुहा नल। पलित नव काणणे महानीम।। माटे सेव नले प्रकारे हे श्री जिनवचन अमृत रसना कुंम स! जीव तुं। मान प्रते ॥१०॥ सेविसुरे जीव तुमं। जिणक्यणं अमिय कुंमसमर वीपम नवरूप मारवाम दे अनंत दुःख नालारूप तापे त शमां। विसमे नव मरुदेसे। अणंत गिम्हमि ताव संतत्ते॥ श्री जिनधर्मरूप कल्पवृक्ष ले आश्रय कर वा समर तुं हे जीव पाव्या तेहने॥
SR No.020562
Book TitlePrakaran Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavchand Jechand Shah
PublisherRavchand Jechand Shah
Publication Year1888
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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