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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वर, और संयुक्ताक्षरमेंसे जिसका उच्चारण पहिले होता हो, वह निरर्थक समझा जाता है. तिरकुरंगुडिके विष्णु मन्दिरके घंटपरके लेखमें कोलंब संवत् ६४४ के लिये " भवति" शब्द लिखा है (१), जिसमें भ%D४, व=४ और ति= ६, मितकर ६४४ निकलते हैं. ऐसेही कन्याकुमारीसे १० मीलपर सुचिन्द्रंके शिव मन्दिरके लेखमें शक संवत् १३१२ के लिये “राकालोके" लिखा है (२). ___आर्यभट्टने अपने पुस्तक आर्यसिद्धान्तमें "कटपयादि" क्रमसे अंक दिये हैं, परन्तु पहिले अक्षरसे एकाई, दूसरेसे दहाई आदि क्रम नहीं रक्खा, किन्तु जैसे वर्तमान समयमें अंक लिखेजाते हैं, उसी क्रमसे अंकोंके लिये अक्षर लिखे हैं (३), और संयुक्त व्यंजन भी दो दो अंकोंके लिये दिये हैं (४). गांधार लिपिके अंक-- गांधार लिपि फारसीके समान दाहिनी औरसे पाई ओरको लिखी जाती है, परन्तु इसके अंक फारसी अंकोसे उलटे अर्थात् दाहिनी ओरसे घाई ओरको लिखेजाते हैं, जिसका कारण यह है, कि फारसी अंकोंकी नाई ये अंक भारतर्वषके अंकोंसे नहीं, किन्तु फिनीशियन अंकोंसे बने हैं. प्राचीन फ़िनीशियन अंकोंका क्रम ऐसा था, कि १ से ९ तकके लिये क्रम पूर्वक १ से ९ खडी लकीरें, तथा १०, २० और १०० इनमेंसे प्रत्येकके लिये एक एक चिन्ह नियत था, परन्तु पीछेसे १ और ९ के पीचके अंकोंमें कुछ परिवर्तन होकर अधिक लकीरें लिखनेकी तकलीफ़ कम करदीगई थी, जैसे कि पल्माइरावालोंने पांचकी पांच खडी लकीरें मिटाकर उनके स्थानपर एक नया चिन्ह नियत किया (१) श्रमकोलबर्ष भवति गुणमणिगिरादित्यवर्मा वचो पालो विशाख : प्रभुरखिलकलावल्लभ : पर्यवधनात् ( इण्डियन एण्टिक्के रौ जिद २, पृष्ठ ३६० ). (२) राकालोके शकाब्द सुरपतिसचिवे सिंहयाते तुलायामारूढे पद्मिनी शे व्यदितिदिनयुते भानुवारे च शभो: । काडातन् मार्तण्ड वा श्रियमतिविपुलां कीर्तिमायुश्च दो स्थाने मानी शुचौन्दू समक्त सभां केरलक्ष्मापतौन्द्र : ( इण्डियन एण्टिक्करौ जिल्द २, पृष्ठ ३६१). (३ ) सप्तर्षीणां कणवझझझिला १५५८४-८ मदयसिनधा ५८१७०८ यनास्यस्य । त्रैरापि कन साध्य | गणाद्यहिल तु कल्पगतात् ( आर्य सिद्धान्त अधिकार २, आर्या ८), ( ४ ) क्लकणेः १०१५ सरधै ७२६ विभजेदगण ( आर्य सिद्धान्त अधिकार १, आर्या ४० ) ताने ६० लिसा : शोध्या योज्यास्तात्कालिका : क्रमात्स्युस्ते । स्फटभुक्तौ क्य ११ त १० ने खने ५० र भिसे २४७ ईते बिबे ( अधिकार ५।५ ). For Private And Personal Use Only
SR No.020558
Book TitlePrachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Harishchandra Ojha
PublisherGaurishankar Harishchandra Ojha
Publication Year1895
Total Pages199
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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