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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संवत् लिखे जानेसे प्रतीत होता है, कि यह संवत् प्रारंभमें मालव लोगोंने चलाया था, परन्तु पीछेसे उसके साथ विक्रमका नाम किसी कारणसे मुड़कर विक्रम संवत् कहलाने लग गया (१), जैसे कि गुप्त राजाओंने अपने नामसे गुप्त संवत् चलाया, परन्तु उनका राज्य अस्त होकर वल्लभीके राज्यका उदय होनेपर वही संवत् "वल्लभी संवत्" कहलाने लग गया. यदि यह संवत् विक्रम राजाने ही चलाया होता, तो विक्रमका नाम अन्य स्थानोंके लेखों में नहीं रहते भी मालवाके लेखों में तो प्रारंभसे ही मिलना चाहिये था. जो वराहमिहरके समयमें यह संवत् सर्वत्र प्रचलित होता, और आज विक्रमको जैसा प्रतापी, यशस्वी, और परदुःख भंजन मानते हैं, वैसाही उस समयके लोग भी मानते होते, तो संभव नहीं, कि वराहमिहर अवन्ती (२) देश (मालवा ) काही निवासी होकर ऐसे प्रतापी स्वदेशी राजाका संवत् छोड़, शक जातिके विदेशी राजाका संवत् (शकसंघत् ) अपने पुस्तकों में दर्ज करे. वराहमिहरके ज्योतिषके पुस्तकोंमें कलियुग संवत्के स्थानपर शक संवत् लिखनेका कारण यह है, कि उनके समय में मालव (विक्रम ) संवत् केवल मालवामें, और कहीं कहीं राजपूताना व मध्यहिन्द में लिखा जाता था, और शक संवत् प्रायः सारे भारतवर्ष में प्रचलित था, इसलिये उनको अपने पुस्तकों में सर्वदेशी संवत् ही लिखना पड़ा. गुप्तवंशी राजा चन्द्रगुप्त दूसरेके कितनेएक सिक्कोंपर उसके नामके - (१) ग्यारिसपुर से मिले हुए सं० ८३६ के लेख में “मालवकालाच्छरदां षटपसंयुतेव्यतीतेषु । नवस शतेषु” लिखा रहने से (आकि यालाजिकल सर्व आफ इंडिया-रिपोर्ट, जिल्द १०, पृष्ठ ३३. प्लेट ११) पाया जाता है, कि “ विक्रम संवत् ” लिखने का प्रचार होने बाद भी कहीं कहीं यह संवत् अपने असली नाम (मालव सवत् ) से लिखा जाता था. कोटा नगरसे उत्तर में करवा (कणवाश्रम) के शिवमन्दिरके लेख में [ संवत्सरशा तैः सपचनपत्याग लेः सप्तभि ( ७८५ )लिवेशानां मन्दिरं धूर्जटः कृतं ॥ इण्डियन एण्टिक्केरौ, जिद १८, पृष्ठ ५० ], और मैनालगढ़ (इलाके मेवाड़ ) के महलोंके उत्तरी दर्वा जेके एक संभपर खुदे हुए चौहान राजा विग्रहराजके क्रमानुयायी पृथ्वीराज दूसरे (पृथ्वीभट या पृथ्वौदेव )के समयके लेखमें [मालवेशगतवत्सर(२)पत : हादश्चषविंग ( १२२६ ) पूर्व केः ॥ एशियाटिक सोसाइटी बंगालका जर्नल जिल्द ५५, हिस्सह १, पृष्ठ १६] इस संवत्को मालदेश (मालवाके राजाका ) संवत् लिखा है, (२) आदित्यदासतनयस्तदवाप्तबोध : कापित्यक सविन्धवरप्रसादः । आवंतिको मुनिमतान्यवलोक्य सम्यधोरां वराहमिहरो रुचिरां चकार (बृहज्जातक, अध्याय २८, श्लोक ९). For Private And Personal Use Only
SR No.020558
Book TitlePrachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Harishchandra Ojha
PublisherGaurishankar Harishchandra Ojha
Publication Year1895
Total Pages199
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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