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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१५) प्राचीन लिपियोंकी वर्णमालाका पुस्तक उनको बतलाकर इन लेखों को अपनी इच्छा के अनुसार कुछका कुछ पढ़ादिया बिल्कर्ड साहिबने इस तरह पढ़े हुए वे लेख अंग्रेज़ी भाषांतर सहित सर विलियम जोन्स के पास पीछे भेजदिये. बहुत वर्षोंतक इन लेखोंके शुद्ध पढ़ेजाने में किसी को शंका नहीं हुई, परन्तु पीछेसे उनका पढ़ना और भाषांतर बिल्कुल कपोल कल्पित ठहरे. एशियाटिक सोसाइटी बंगालके संग्रह में दिल्ली, और इलाहाबाद के स्तम्भों, तथा खएडगिरिके चट्टानपर खुदे हुए लेखोंकी छाप ( नकुल ) आगई थीं, परन्तु विल्र्ड साहिबका यत्न निष्फल होनेसे कितनेएक वर्षांतक उन लेखों के पढ़नेका उद्योग न हुआ. प्रिन्सेप साहिबको इन लेखोंका वृत्तांत जानकी जिज्ञासा लग रही थी, जिससे सन् १८३४-३५ ई० में उन्होंने इलाहाबाद, रधिया और मथियाके स्तंभोंके लेखोंकी प्रति मंगवाई, और उनको दिल्लीकें लेखसे मिलाकर देखने लगे, कि इनमें कोई शब्द एकसा है वा नहीं. इस प्रकार चारों लेखोंको पास पास रखकर मिलाने से तुरन्त ही यह पाया गया, कि ये चारों लेख एक ही हैं, जिससे उनका उत्साह अधिक बढ़ा, और उन्हें अपनी जिज्ञासा पूर्ण होनेकी दृढ़ आशा बंधी. पश्चात् इलाहाबादके लेख से भिन्न भिन्न आकृतिके अक्षरोंको अलग अलग छांटने लगे, तो गुप्ताक्षरोंके समान उनमें भी कितनेएक अक्षरोंके साथ स्वरोंके पृथक् पृथक् पांच चिन्ह लगे हुए पाये, जिनको एकत्र कर प्रसिद्ध किया ( १ ). इससे कितनेएक विद्वानोंको उक्त अक्षरों के यूनानी होने का जो भ्रम था वह दूर होगया. स्वरोंके चिन्ह पहिचाननेके पश्चात् मिस्टर प्रिंसेप अक्षरोंके पहिचाननेका उद्योग करने लगे, और इस लेखके प्रत्येक अक्षरको गुप्त अक्षरोंसे मिलाना, और जो मिलता जावे उसको वर्णमाला में क्रमवार रखना प्रारम्भ किया. इस प्रकार उक्त साहिबने बहुतसे अक्षर पहिचानलिये. प्रिन्सेप साहिबकी नाई पादरी जेम्स स्टिवन्सन भी इसी शोध में लगे हुए थे. उन्होंने इस लिपिके “ क, ज, प और ब" अक्षरोंको ( २ ) पहिचाना, तत्पश्चात् इन अक्षरोंकी सहायता से लेख पढ़कर उनका भाषान्तर करने के उद्योगमें लगे, परन्तु कुछ तो अक्षरोंके पहिचानने में भूल होजाने, कुछ वर्णमाला पूरी न होने ( ३ ), और इसके अतिरिक्त (१) एशियाटिक सोसाइटी बंगालका जर्नल (निल्द ३, पृष्ठ ११७, प्लेट ५ ). (२) एशियाटिक सोसाइटी बंगालका जर्नल (जिल्द ३, पृष्ठ ४८५ ). 66 ( ३ ) न" को " र " पढ़लिया था, और " द” को पहिचाना नहीं था. For Private And Personal Use Only
SR No.020558
Book TitlePrachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Harishchandra Ojha
PublisherGaurishankar Harishchandra Ojha
Publication Year1895
Total Pages199
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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